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________________ मेतार्य महर्षि कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् तक वहाँ जाने के कारण सेठानी धनश्री उसकी सहेली हो गयी। एकदिन सेठानी ने व्यथित होकर मेती को कहासखि! तुम धन्य हो कि तुम्हारी गोद में हंस के समान पुत्र खेल रहा है। मेती ने कहा-दुःखी होना बन्द करो। तुम्हारी गोद में (कुक्षी में) भी तो बच्चा खेल रहा है। सेठानी ने खेदपूर्वक कहा-मेरा यह गर्भ तो सिर्फ निन्दा का पात्र है। हमेशा की तरह इस बार भी मरा हुआ बच्चा पैदा होगा। तब मेती ने कहा-अगर ऐसा हुआ, तो मैं अपना बच्चा तुम्हें दे दूँगी, पर तुम दुःख मत करो। तब सेठानी मेती का पहले से भी ज्यादा ध्यान रखने लगी। भाग्य योग से दोनों का एक साथ प्रसव हुआ। सेठानी के पुनः मृत लड़की हुई। मेती ने छिपाकर अपना पुत्र सेठानी को दे दिया। स्वयं उसकी मृत पुत्री रख ली। फिर पति को निवेदन किया कि मुझे मृत पुत्री पैदा हुई है। उसके पति ने भी अश्रु भरी आँखों से उस पुत्री को त्याग दिया। सेठ के घर में पुत्र जन्म का महा-महोत्सव हुआ। उस पुत्र का नाम मेतार्य रखा गया। तब वर्द्धित होते हुए मेतार्य ने संपूर्ण कलाएँ ग्रहण की। पूर्व भव के कृत संकेतानुसार देव ने स्वप्नादि से उसे बोधित किया, पर वह बोधित नही हुआ। देव की संनिधि के पात्र की तरह संपूर्ण इच्छाओं को जीवन्त पाकर मित्रों के साथ देवकुमार की तरह नित्य क्रीड़ा करने लगा। पृथ्वी तल पर आयी हुई मूर्तिमन्ता अप्सराओं के समान आठ श्रेष्ठि कन्याओं के साथ उसकी सगाई हुई। शुभ दिन में उत्सवपूर्वक नागरिकों व स्वजनों से युक्त होकर शिबिका पर आरुढ़ होकर मेतार्य विवाह करने के लिए निकला। देव से अधिष्ठित मेती के पति ने शोकापन्न होकर अश्रु बरसाते हुए कहा-प्रिये! अगर आज हमारी बेटी जिन्दा होती, तो इतनी ही बड़ी हो गयी होती। हम भी आज उसका विवाह करवा रहे होते। तब मेती ने उसके दुःख को शान्त करने के लिए पुत्र-पुत्री के परस्पर बदलने का वृतान्त बता दिया। मेती का पति देव के अनुभाव के वश में होकर क्रोधित होता हुआ अपने पुत्र की तरफ दौड़ा। किसी प्रकार से अस्खलित उसके पास जाकर कहा-यह मेरा पुत्र है। शीघ्र ही मेतार्य को शिबिका से उतारकर अपने घर ले आया। उसे गर्त में गिराकर बोला-हम अपनी ही जाति की वैसी ही स्त्री के साथ मूल्य देकर विवाह करेंगे। सेठ ने सेठानी से पूछा-यह सब क्या है? उसने मुख फेर लिया। तभी सभी लोग मुख नीचा करके अपनेअपने घर आ गये। देव ने भी मेतार्य को कहा-क्या अब भी व्रत ग्रहण करने की इच्छा नहीं हुई। उसने कहा-क्या करूँ! तुमने तो मेरी खूब रक्षा की। जगत की प्रतिष्ठा से मैं प्रत्यक्ष ही पतित हुआ हूँ। अब उस प्रतिष्ठा का दर्शन तक नहीं कर सकता हूँ। अतः मुझे पहले के समान स्थान पर स्थापित करो तथा मेरा विवाह राजा श्रेणिक की पुत्री के साथ करवाओ। तब बारह वर्ष बाद मैं सर्वसंयम को ग्रहण करूँगा। संपूर्ण सावध क्रियाओं का त्याग करके सिद्धि वधू को प्राप्त करूँगा। तब उस देव ने उसे रत्न-देनेवाला बकरा दिया एवं कहा कि इन रत्नों के द्वारा तुम स्वयं नृप से उसकी पुत्री के लिए याचना करना। तब प्रातःकाल होते ही उस पशु द्वारा उत्सृष्ट रत्नों से थाल भरकर अपने पिता को बोलाआप जाकर मेरे लिए राजसुता की याचना कीजिए। मेत ने राजा के समीप जाकर रत्नों से भरा थाल रखा। राजा ने कहा-मेत! किस लिए यह महा-भेंट लेकर आये हो? उसने कहा-देव! मेरे पुत्र के लिए आपकी पुत्री का हाथ माँगने आया हूँ। क्रोधान्ध मनवाले राजा ने मेत को चोटी पकड़कर बाहर निकाल दिया। लेकिन पुत्र के वचनों से वह नित्य जाकर भूपति को रत्नों का उपहार देकर राजपुत्री की याचना करता। एक दिन अभयकुमार ने कहा-तुम इतने रत्न रोज कहाँ से लेकर आते हो? क्या चोरी से प्राप्त करते हो या तुम्हारे पास कोई खजाना है? मेत ने कहा-हमारे पास रत्नों का उत्सृजन करनेवाली वस्तु है। राजा ने कहा-तुम वह वस्तु हमें अर्पित करो। उसने कहा-ले लिजिए। तब 91
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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