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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् मेतार्य महर्षि कथा उच्च स्वर में बोले-श्राविके! तुमने क्या कहा? मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया। राजर्षि के वचन सुनकर कुमार शीघ्र ही वहाँ आ गये। उन्होंने राजर्षि को बाँह से पकड़कर ऊपर ले जाकर कहा-मुनि! नाच करो। राजर्षि ने कहा-तो तुम दोनों को बजाना होगा। अतः आतोद्य लेकर तुम दोनों शीघ्र ही बजाना शुरु करो। मुनि ने पात्रों को एक तरफ रखकर वस्त्रों को हडरूप से बांधकर रंगमंच में नाचने वाले नर्तक कोविद की तरह मुनि ने नृत्य किया। आतोद्य वादन में अज्ञ होने से वे अपनी मर्यादा से चूक गये। यह जानकर महर्षि ने कहा-अरे! वाद्य नहीं बजाओगे तो मैं नृत्य कैसे करुंगा। अतः रोष के साथ साधु ने उन्हें एक ही तमाचे से आहत कर दिया। अंगों से चटका-चटकाकर उन्हें विह्वलीभूत बना दिया, ताकि वे अन्य किसी को पीड़ा न उपजा सकें। इस प्रकार करके वे राजर्षि पुर से बाहर उद्यान में जाकर शुद्ध स्थण्डिल में बैठकर ध्यान में लीन हो गये। राजा जब भोजन करने आये, तो अपने पुत्र को बुलाया। तब किसी प्रत्यक्षदर्शी ने कुमार का वृतान्त राजा को बताया। वहाँ से उठकर राजा ने शरीर की मालिश करने वालों को बुलाया। उन्होंने कहा-यह कार्य हमारे लिये असाध्य है। जिन्होंने यह किया है, वे ही इनको स्वस्थ कर सकते हैं। तब उन दोनों कुमारों की पीड़ा के प्रति विशेष सावधान हुआ। और राजा ने श्रमण-उपाश्रयों में उस साधु को खोजा। उन्होंने कहा-हममें से कोई भी ऋषि आपके घर नहीं जाता पर अगर एक प्राघुर्णक साधु गया हो, तो हम नहीं जानते, क्योंकि वह अभी तक वापस नहीं आया है। अतः उसे खोजकर पृच्छा करें। राज पुरुषों द्वारा उसे चारों ओर खोजा गया। जंगल के स्थण्डिल भूमि में उस साधु को देखकर किसी ने राजा को बताया। तब राजा स्वयं वहाँ आया। राजर्षि को देखकर शीघ्र ही पहचान गया कि यह मेरे सहोदर हैं। तब राजा ने लज्जायुक्त होकर विनम्र भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब ध्यान का संहरण करके राजर्षि ने राजा को उपालम्भ दिया-राजन्! तुम महाकुलीन हो। तुमने कुल को उजाला है। तुम्हारे पुत्र द्वारा सुसाधुओं की कृत पूजा से जो कीर्ति जगत में व्याप्त हुई है, वैसी कीर्ति किसी की नहीं है। राजा ने कहा- मुझसे अपराध हुआ है। मोह वश मुझ में कुबुद्धि घर कर गयी। हे भ्राता! इन सभी अपराधों को सिर्फ एक बार क्षमा कर दो। प्रसन्न होकर कृपा करके इन दोनों कुमारों को जीवन दान दो। राजर्षि ने कहा-इनको तभी जीवनदान दूंगा, जब ये व्रत ग्रहण करेंगे। हे राजा! तुमने अपने पुत्रों की जैसे उपेक्षा की है वैसे तुम्हारे पुत्र की उपेक्षा मैं कैसे करूँ? मैं चन्द्रावतंसक कुल में कलंक सहन करने में अक्षम हूँ। राजा ने कहा-हे भ्रात! आप वहीं आकर के, उन्हें जीवनदान देकर स्वेच्छा से दीक्षा देवें, क्योंकि चन्द्रावतंसक के स्थान पर आप ही हमारे प्रभु है। तब मुनि ने राजा के साथ वहाँ आकर दोनों कुमारों को पूछा-जीवनदान चाहते हो तो व्रत को स्वीकर करो। उन दोनों ने हामी भरी। तब राजर्षि ने उन दोनों के अंगो को स्वस्थान में व्यवस्थित किया। और तत्काल ही उन दोनों को प्रव्रजित कर दिया। भाई के पुत्र ने तो शुद्ध मति से प्रव्रज्या का पालन किया। मन में अपने आपको धन्य मानते हुए विचार करने लगा कि यदि चाचा ने मुझे प्रतिबोधित न किया होता, तो धर्म का प्रत्यनीक होकर मैं भवसागर में गोते लगा रहा होता। पुरोहित पुत्र भी व्रत का निर्वहन तो कर रहा था, लेकिन ब्राह्मण होने से मुनि की क्रियाओं में कुछ जुगुप्सा भी थी। वह कपट-नाटक करके अध्यात्म को धारण करता था। क्यों इस राजर्षि ने मुझे बलात् दीक्षा दी? क्रम से मरकर दोनों स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न हुए। वहाँ ब्राह्मण जन्म वाला देव भी अर्हत् धर्म में दृढ़ हो गया। उन दोनों देवो ने परस्पर संकेत किया कि जो पहले यहाँ से च्यवकर जायगा, उसे दूसरा देव प्रतिबोधित करेगा। द्विज देव सर्वप्रथम वहाँ से च्युत होकर जुगुप्सा कर्म के कारण राजगृह नगर में मेती [हरिजन] की कुक्षि से गर्भ धारण किया। मेती एक सेठ के घर में नित्य सफायी (कचरा निकालने) करने के लिए जाती थी। बहुत समय 90 -
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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