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________________ तार्य महर्षि कथा ताकि मेरा पुत्र राज्य श्री का भोग कर सके । अतः तब से वह विमाता शाकिनी की तरह उसके छिद्रान्वेषण में रत रहने लगी। सागरचन्द्र भी जनता के अनुरोध से शासन कर रहा था। एक बार वह उद्यान संपदा को देखने की इच्छा से सुबह - सुबह उद्यान में गया । सुबह का नाश्ता वहीं करने के लिए उसने दासी को रसोइये के पास भेजा। राजा को दीर्घ काल तक भूख न लगेइस प्रकार विचार कर रसोइये ने शीघ्र ही कल्पवृक्ष के फल की तरह अद्भूत मेवायुक्त मोदक राजा के नास्ते के लिए दासी के हाथों में समर्पित किया । दासी के हाथ में उस मोदक को देखकर प्रियदर्शना रानी ने पूर्व में बनाये हुए विषाक्त हाथों से उस मोदक को स्पर्श करने के लिए क्षण भर हाथ में लिया। फिर सूँघकर उसकी खूशबू की प्रशंसा करते हुए रानी ने तत्काल दासी को दे दिया । दासी ने भी जलदी से जाकर वह मोदक राजा को समर्पित कर दिया। उस मोदक को लेकर राजा ने विचार किया कि मैं इसे अकेले कैसे खाउँ ? मेरे दोनों छोटे भाई (विमाता के दोनों पुत्र ) भूखे हैं। अतः शीघ्र ही उस मोदक के दो टुकड़े करके उन दोनों को दे दिये। अमृत से भी अधिक सुस्वादूं मोदक को उन दोनों ने प्रसन्न होकर खा लिया। उस विष के प्रभाव से वे दोनों उसी समय मूच्छित हो गये । राजा ने संभ्रान्त होकर तुरन्त वैद्य को बुलवाया। वैद्य ने नाड़ी का परीक्षण करके उन दोनों को चौवीस वर्णिक सुवर्ण पिलाया गया, जिससे तन्त्र से आक्रान्त शाकिनी की तरह वह विषमूर्च्छा चली गयी। फिर राजा ने दासी को बुलाकर पृच्छा कि यह चेष्टा किसने की? मुझे साफ-साफ बताओ। उसने कहा- देव ! मैं शपथ खाती हूँ कि मैंने कुछ भी नहीं किया । हाँ! प्रियदर्शना रानी ने मेरे हाथ से मोदक लेकर, देखकर, सूँघकर व प्रशंसा करके पुनः मुझे मोदक समर्पित किया था। तब राजा ने विचार किया कि विमाता के मन की कुलीला आज प्रकट हुई। राजा ने विमाता से पूछा- यह कृत्य क्यों किया? अगर राज्य के लिए किया तो वह तो मैं पहले भी अपने भाई को देने के लिए इच्छुक था। अभी भी मैंने निवेदन किया था कि मेरी राज्यस्पृहा किंचित भी नहीं है। मैं आसक्ति से नहीं, अपितु प्रजा के अनुरोध पर राज्य कर रहा हूँ। अगर मैं सद्धर्म रूपी शरण से रहित, कुछ भी धर्म-पाथेय उपार्जित किये बिना पापी की मौत मर जाता, तो नमस्कार मंत्र को प्राप्त किये बिना ही क्षणभर में दुर्गति को प्राप्त करके अनंत संसार में पर्यटन करता । सम्यक्त्व प्रकरणम् इस प्रकार विमाता को उपालम्भ देकर उनके पुत्र को स्वयं राज्य प्रदान किया एवं अद्भूत वैराग्य से उथि होकर खूब द्रव्यस्तव करके संपूर्ण लोगों से क्षमा-याचना करके सागरचन्द्र नृप ने सुगुरु के समीप में मोक्ष की अभिलाषा से व्रत गहण किया। सिद्धांतों का अध्ययन करके, साध्वाचार का पालन करते हुए, तीव्र तपस्या से पत होते हुए गुरु के साथ विहार किया । अन्य किसी दिन उज्जयिनी नगरी से दो साधु आये। उनसे पूछा कि वहाँ साधुओं का सूखपूर्वक विहार होता होगा । उन दो साधुओं ने कहा- साधुओं को तो सर्वत्र ही सुख होता है, असुख नहीं। साधुओं के प्रयोग में आनेवाली वस्तुएँ सर्वत्र सुलभ होती हैं। केवल राजा का पुत्र तथा कुलगुरु का पुत्र ये दोनों प्रत्यनीक की तरह मुनियों को उपसर्ग करते हैं। अतः उनके उपसर्ग से भयभीत होते हुए कोई भी साधु अथवा अन्य कोई भी कदाचित भी उनके घर नहीं जाते। यह सुनकर राजर्षि ने क्रोधित होते हुए गुरु की आज्ञा से उन दोनों दुर्विनीतों को अनुशासित करने के लिए उज्जयिनी की ओर विहार किया । वहाँ जाकर एक साधुओं के गच्छ में वे उतरे। बहुत समय विश्राम करके उन साधुओं ने पूछा- आपके लिए आहार आदि ला देवें। उन्होंने कहा- आप अपने लिए ले आवें। मैं अपनी लब्धि से लाउँगा । केवल मुझे आप कोई भी स्थापना घर दिखा देवें । तब एक क्षुल्लक ने हाथ इशारा करते हुए स्थापनाघर दिखाया और कहा- राजकुल तथा पुरोहित के घर आप न पधारें। क्षुल्लक लोटते ही राजर्षि ने राजकुल में जाकर उच्च स्वर से कहा- धर्मलाभ ! अन्तपुर की स्त्रियों ने हड़बड़ाकर बाहर हुए कहा - हा! हा! मुनि! मुनि! मौन हो जायें। उच्च स्वर में न बोलें । कुमारों को बताने के लिए राजर्षि पुनः आ 89
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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