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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् कालकाचार्य की कथा को उसने खुश किया, बाकी अन्य सम्पूर्ण उच्च जनों को हटाकर उनका तिरस्कार किया। उस दत्त राजा का एक मामा ब्रह्मचर्य में निष्ठ कालिकाचार्य नामवाले श्वेताम्बर गणाधिपति थे। विशिष्ट अतीन्द्रिय ज्ञान से वे तीनों काल की बात जानते थे। वे एक-बार धरतीतल को पावन करते हुए वहाँ पधारे। अपने मामा को वहाँ आया हुआ जानकर दत्त वहाँ आकर उनको नमस्कार करके उनके सामने बैठा। क्षीर-समुद्र की लहरों के समान देशना उन्होंने दी। देशना सुनने के अवसर पर दत्त ने उनसे पूछा-यज्ञों का क्या फल है? गुरु ने कहाहे महाभाग! क्या धर्म पूछते हो? राजन्! धर्म हिंसा के परित्याग से निर्मल होता है। राजा ने पूनः पूछा-यज्ञ का फल कहो। गुरु ने कहा-हे राजन्! अधर्म से दुर्गति होती है। दत्त ने क्रोधपूर्वक कहा-क्या तुम बहरे हो कि मैं पूछता कुछ हूँ और तुम जवाब अन्य कुछ देते हो। गुरु ने कहा-हे राजन्! मुझ में बधिरता नहीं है। राजा ने कहा-तो फिर यज्ञ का फल क्यों नहीं कहते हो? गुरु ने विचार किया-यह दुरात्मा दत्त अभिनिवेश पूर्वक शठता के कारण प्रत्यनीकता से अधम पाप का फल पूछता है। अगर मैं यथार्थ का कथन करूँगा तो इस कुमति को वह नहीं रुचेगा। लेकिन मैं इसके भय से कुछ भी असत्य नहीं कहूँगा। इस प्रकार विचार करके गुरु ने राजा को यथार्थ स्वरूप बताते हुए कहाहे राजन्! हिंसा आदि हेतुओं से यज्ञ का फल नरक है। क्रोधाग्नि से जलने के समान उस मिथ्यादृष्टि ने गुरु को कहा-हे वाचाल! तुम्हारे वचनों पर हम कैसे विश्वास करें? गुरु ने अपने ज्ञान से जानकर कहा-यह विश्वास होगा क्योंकि राजन्! आज से सातवें दिन तुम कुत्तों द्वारा खाये जाते हुए कुम्भीपाक में पकाये जाओगे। उसने द्वेष से जलते हुए कहा-हे आचार्य! क्या यह बात विश्वासपूर्वक कहते हो या ऐसे ही? गुरु ने कहा-हे राजन्! मैं बिना विश्वास के कोई बात नहीं कहता। इस अर्थ में तुम भी यह विश्वास जान लोगे। सातवें दिन प्रभात में ही राजमार्ग पर तुम्हारे मुख में घोड़े के खुर से खोदी गयी विष्टा प्रवेश करेगी। यह सुनकर रुष्ट होता हुआ दत्त भुजाओं को फडफड़ाता हुआ आधी आँखों को बंदकर, होठों को दंशता हुआ, कम्पमान अंगवाला मूर्त क्रोध की तरह हो गया। उसने आचार्य को कहा-तुम ज्ञानवान की तरह यहीं बैठो तथा बताओ कि कहाँ व कैसे तुम्हारी मृत्यु होगी। गुरु ने कहाचिरकाल तक निजव्रत का पालन करके अन्त में समाधिपूर्वक मरण प्राप्त करके मैं देवलोक में जाऊँगा। तब आचार्य को बन्दी बनाने के लिए सैनिकों को वहाँ छोड़कर वह दुराशयी दत्त बोला-आठवें दिन मैं तुम्हारी समाधि करवाऊँगा। वहाँ से उठकर अपने महल में जाकर उसने दुःखपूर्वक हृदय में सोचा-मैं सात दिन तक यहीं छिपे हुए की तरह जीवन-निर्वाह करूँगा। आठवें दिन उसी आचार्य द्वारा उच्चारणपूर्वक लगातार अत्यन्त उत्साहपूर्वक नरमेध महा-यज्ञ करवाऊँगा। इस प्रकार विचारकर अपने भवन के भीतर अन्तर्ध्यान हो गया, जिससे मृत्युरूपी भय कहीं से भी दिखायी न पड़े। इधर उस राजा के सभी माण्डलिक आदि उससे विरक्त होकर विचार करके उसे पकड़ने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। आर्त्त-ध्यान करते हुए दत्त ने पाँच दिन व्यतीत किये। भाग्य का मारा वह छठवे दिन को सातवाँ दिन मान बैठा। संपूर्ण घर के आँगनों की तरह राजमार्गों को साफ करवाकर रात्रि में अंगरक्षकों द्वारा अपने शरीर के समान उन मार्गों की सुरक्षा करवायी। सातवें दिन प्रभात होने के समय कोई माली अपने उद्यान से पुष्पों की टोकरी भरकर राजमार्ग पर जा रहा था। मल के आवेग को न रोक सकने से वह राजपथ में ही अपने कार्य से निपटकर अर्थात् मलोत्सर्ग करके शीघ्र ही पुष्पों द्वारा उसे ढककर चला गया। उधर सामन्तों, मंत्रीमण्डल आदि के साथ सर्वसामग्री व राजपाट से युक्त राजा दत्त चला। आज जाकर उस असंबद्ध प्रलापी आचार्य को शिरोच्छेद आदि प्रायश्चित दूंगा। इस प्रकार बोलते हुए राजमार्ग से जाते हुए वह पूष्पों से ढका हुआ मल घोड़े के खुरों के पड़ने से उछलकर राजा के मुख में प्रविष्ट 94
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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