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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् पूजा विधि यह है कि सर्वत्रिक के असंभव होने पर संभवित्रिक अवश्य ही करना चाहिए।।३०।। अब पाँच प्रकार का अभिगम बताते हैंदव्याण सचित्ताणं विसरणमचित्तदव्यपरिभोगो । मणएगत्ति करणं अंजलिबंधो य दिट्ठी पहे ॥३१॥ तह एगसाडएणं उत्तरसंगेण जिणहर पवेसो । पंचविहोऽभिगमो इय अहवा विय अन्नहा एस ॥३२॥ (१) पूजा के उपकरण को छोड़कर विभूषा रूप में धारण किये हुए पुष्प, ताम्बूल आदि का परित्याग। (२) आभूषण आदि का अत्याग। (३) मन की एकाग्रता। एकमात्र धर्म की आलम्बनता में करण। (४) जब स्वामी दृष्टिपथ पर गोचर हो तब सम्पुट अंजलिबद्ध करके सिर पर रखना। (५) एक वस्त्र रूप अर्थात् एक उत्तरीय वस्त्र धारणकर जिनघर में प्रवेश करना।।३१-३२।। इस प्रकार उक्त प्रकार के ये ५ अभिगम है। अथवा इससे अन्यथा भी पाँच अभिगम हैं। उसको बताते हैं.. अवहट्टुरायककुहरुवाइं पंचवररायककुहरुयाई । • खग्गं छत्तोवाणह मउडं तह चामराउ य ॥३३॥ राजचिह्नो को छोड़कर पाँच प्रकार के प्रबल राग-शोभा को छोड़कर। वे राजचिह्न या राज-शोभा इस प्रकार है-खङ्ग, छत्र, जूते, मुकुट तथा चामर।।३३।। अब पूर्व में वर्णित त्रिक को कहते हैंतिन्नि निसीहि य तिन्नि य पयाहिणा तिन्नि चेव य पणामा । तिविहा पूया य तहा अवत्थतिय भावणं चेव ॥३४॥ तिदिसि निरिक्षण विरई तिविहं भूमीपमज्जणं चेय । बन्नाइतियं मुद्दातियं च तिविहं च पणिहाणं ॥३५॥ सावध व्यापार के निषेध से तीन प्रकार की नैषधिकी है-द्वार पर, मध्य में और गर्भगृह में। तीन प्रकार की प्रदक्षिणा है - दाहिने हाथ से प्रारम्भ करके जाते हुए जो क्रिया होती है, वह तीन प्रदक्षिणा तीन प्रकार के प्रणाम हैं - अंजली मस्तक पर लगाना, अर्द्धावनत और पंचांग भूमि पर लगाकर करना। तीन प्रकार की पूजा है - अंगपूजा, अग्रपूजा और भाव पूजा। तीन प्रकार की अवस्था है - छद्मस्थ, केवली और सिद्धत्व अवस्था। तीन दिशाएँ हैं - ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक्। उन तीनों दिशाओं के निरीक्षण से निवृत्ति-विरतिपूर्वक केवल जिनबिम्ब के सम्मुख ही देखना। अतः तीन प्रकार की निवृत्ति भी है। तीन प्रकार का भूमि प्रमार्जन - चरण का, अधो तथा अन्तराल। तीन वर्णादि, तीन मुद्रा तथा तीन प्रकार का प्रणिधान - ये दस प्रकार के त्रिक हैं। इसी क्रम से पूजा करनी चाहिए।।३४-३५।। वन्दना की विधि का उपसंहार करते हुए उसके फल को कहते हैंइह दहतियसंजुत्तं वंदणयं जो जिणाण तिक्कालं । कुणइ नरो उवउत्तो सो पायइ सासयं ठाणं ॥३६॥ इस प्रकार दस त्रिक से युक्त होकर त्रिकाल में उपयोग पूर्वक जो मनुष्य जिनेश्वरों को वंदन करता है, वह 78
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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