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________________ पूजा विधि सम्यक्त्व प्रकरणम् शाश्वत स्थान को पाता है। यहाँ उपयोगपूर्वक का अर्थ एकाग्र भाव वन्दना है। क्योंकि कहा भी गया है वंदतो संमं चेइयाई सुहज्झाण पगरिसं लहइ । तत्तो य कम्मनासं पणटुकम्मो य निव्वाणं ॥ १ ॥ सम्यक्पूर्वक चैत्यों को वन्दन करते हुए शुक्ल ध्यान की प्रकर्षता को प्राप्त करता है, जिससे कर्मनाश होता है और प्रनष्ट कर्मवाले को निर्वाण प्राप्त होता है || ३६ || अब पूजा, अवस्था, वर्णादि, मुद्रा, प्रणिधान त्रिकों का वर्णन अगली गाथाओं में कहते हैं पुप्फाऽऽमिसथुइभेया तिविहा पूआ अवत्थतियगं च । होइ छउमत्थ केवलिसिद्धत्तं भुवणनाहस्स ॥३७॥ वनाइतियं तु पुणो वन्नत्थालंबणस्सरूयं तु । मणययणकायजणियं तिविहं पणिहाणमवि होड़ ॥३८॥ मुद्दातियं तु इत्थं विन्नेय होई जोगमुद्दाइ । हरिभद्दसूरिविरइयगंथम्मि इमं जउ भणियं ॥ ३९॥ पुष्प आमिष स्तुति भेद से तीन प्रकार की पूजा है। यहाँ पुष्प का ग्रहण होने से गन्ध, धूप, न्हवण, विलेपन, वस्त्र- आभरण आदि इसी में उपलक्षित हो जाते हैं। आमिष का अर्थ है नैवेद्य । नैवेद्य में भी अखण्ड अक्षत, फल, जल, घृत, दीपक आदि का अन्तर्भाव हो जाता है। स्तुति का अर्थ है - श्लोक, वृति आदि कहना । अवस्थात्रिक का अर्थ है - छद्मस्थ, केवली तथा सिद्धत्व। ये तीनों अवस्था भुवननाथ की है। वर्णादित्रिक - वर्ण अर्थ के आलम्बन स्वरूप है। वर्ण-शब्द व्यक्त ही है। इनका शुद्ध उच्चारण करना । अर्थ-वर्ण के अर्थ का चिंतन करना। आलम्बन-जिन बिम्ब का। मन-वचन-काया से जनित प्रणिधान तीन प्रकार का होता है। संवेग रस से युक्त मन की स्थिरता मन प्रणिधान है। आलाप संपत् सत्यापन युक्त सूत्र का उच्चारण करना वचन प्रणिधान है। अंगोपांग से युक्त काय प्रणिधान है। मुद्रात्रिक का वर्णन तो चैत्यवन्दना में किया गया है। योगमुद्रा, जिनमुद्रा, मुक्ताशुक्ति आदि। यहाँ - इस आशंका के निवारण के लिए वृद्ध संमति को दिखाते हुए कहते हैं कि हरिभद्र सूरि के द्वारा रचित ग्रन्थ पञ्चाशक नाम के शास्त्र में यह कहा गया है ।। ३७-३८-३९ ।। उनके द्वारा कही हुई गाथा पञ्चक को कहते हैंपंचंगो पणिवाउ थयपाठो होइ जोगमुद्दाए । वंदण जिणमुद्दाए पणिहाणं मुत्तसुत्तीए ॥ ४० ॥ दो जाणू दुन्नि करा पंचमंगं होइ उत्तमंगं तु । संमं संपणिवाओ नेओ पंचंगपणिवाओ ॥४१॥ अनुन्नंतरियंगुलि-कोसागारेहिं दोहिं हत्थेहिं । पिठुवरि कोप्पर संठिएहिं तह जोगमुद्दति ॥ ४२ ॥ चत्तारि अंगुलाई पुरओ उणाई जत्थ पच्छिमओ । पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥४३॥ मुत्तासुत्ती मुद्दा समा जहिं दोवि गब्भिया हत्था । ते पुण निलाडदेसे लग्गा अन्ने अलग्गति ॥४४॥ भू-स्पर्श करते हुए पाँच अंग पंचांग हैं। प्रणिपात का अर्थ प्रणाम है। शक्रस्तव का आदि से अन्त तक का 79
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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