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पूजा विधि
सम्यक्त्व प्रकरणम्
अब पूजा में रही हुई विधि विशेष को कहते हैं - सुत्त भणिएण विहिणा गिहिणा निव्याणमिच्छमाणेण ।
लोगुत्तमाण पूया निच्चं वि य होड़ कायव्वा ॥२६॥ निर्वाण को चाहनेवाले गृहस्थ द्वारा सूत्र में कथित विधि के द्वारा नित्य लोकोत्तम अरिहंत देव की पूजा करनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि अपनी मति कल्पना से नहीं अपितु सूत्र में कही हुई विधि से पूजा करनी चाहिए। क्योंकि
समिइपवित्ति सच्चा [सव्वा] आणाबज्झत्ति भवफला चेव । तित्थयरूद्देसेण वि ण तत्तओ सा तदुद्देसा ॥१॥ (अष्टमपञ्चा० १३)
स्वमति से की गयी सत्य भी (सर्व भी) प्रवृत्ति आज्ञा रहित होने से संसार फल प्रापक है। तीर्थंकर के उद्देश से होने पर भी आज्ञा रहित होने से वास्तविकता से वह धर्माराधना तीर्थंकर के उद्देश से नहीं है।
और विधि इस प्रकार हैकाले सूइभूएणं विसिट्ठपुप्फाइएहिं विहिणा । सारथुइथोत्तगरूई जिणपूया होइ विन्नेया ॥१।। (चतुर्थ पञ्चाशके ३ गाथा)
अर्थात् काल से शुचिभूत होकर विशिष्ट पुष्प आदि के द्वारा विधिपूर्वक, स्तुतियुक्त रूचिपूर्वक जिनपूजा होती है। यह जानना चाहिए।।२६।। 'विधिना' इस प्रकार जो कहा गया है उसे ही आगे करते हुए कहते हैं
आसन्नसिद्धियाणं विहिपरिणामो उ होइ सयकालं । विहिचाउ अविहिभत्ती अभव्यजियदूरभव्याणं ॥२७॥
आसन्न सिद्धि प्राप्त करनेवालों के विधि परिणाम सदाकाल होते हैं। विधि त्याग तथा अविधि से भक्ति तो अभवी जीवों या दूर भवी जीवों में होती है। यहाँ विधि का अर्थ आगम में कहे हुए क्रिया कल्प है।।२७॥ तथा
धन्नाणं विहिजोगो विहिपक्खाराहगा सया धन्ना । विहिबहुमाणी धनाविहिपक्व अदूसगा धन्ना ॥२८॥ विधियोग को करनेवाले धन्य हैं। सदा विधिपक्ष की आराधना करनेवाले धन्य हैं। विधि का बहुमान करनेवाले धन्य हैं। विधिपक्ष में दोष नहीं लगानेवाले धन्य हैं।।२८॥
अब विधिपक्ष की प्रतिज्ञा करके पूजा के अनन्तर वन्दन करना चाहिए। उसके उपदेश को कहते हैंइय आगमविहिपुत्वं भत्तिभरुल्लसिय बहलरोमंच । तं भुवणवंदणिज्जं वंदह परमाइ भत्तीए ॥२९॥
अर्थात् आगमविधि पूर्वक भक्ति से ओतप्रोत, आंतरिक प्रीति के अतिशय से उद्गत अत्यधिक पुलकित रोमवाले होकर उन भुवन वन्दनीय तीर्थंकर के बिम्ब को परम भक्ति से वंदन करें। परम भक्ति का अर्थ है-प्रकृष्ट रूप से प्रदक्षिणा आदि देते हुए काया की प्रतिपति करें।।२९।।
अब आगम में कही हुई वंदन विधि को कहते हैंपंचविहाभिगमेणं पयाहिणतिगेण पूयपुव्वं च । पणिहाणमुद्दसहिया विहिजुत्ता बंदणा होई ॥३०॥
पाँच अभिगमपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर, पहले पूजा करके प्रणिधान मुद्रा सहित विधियुक्त वंदना होती है। यहाँ दशत्रिक के अन्तर्गत होने पर भी पूजा प्रणिधान मुद्रा का पृथग् रूप से आदान किया गया है। इसका मतलब
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