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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् पूजा विधि को तो पाद-विहारी ही होना चाहिए। इस प्रकार उसके साथ-साथ मुनि भी नगर में गये। अपने घर का द्वार ही वह मुनि - श्रेष्ठ को अपने घर के आँगन में ले गया, और प्रतिलाभित करने के लिए हर्षित होते हुए अभ्यर्थना की। जिस प्रकार श्रेयांसकुमार ने इक्षुरस के घड़ों से श्री आदिनाथ प्रभु का पारणा कराया था, उसी प्रकार धन्य ने दूध के घड़े से मुनि को पारणा कराया। उस वर्षाकाल को उसी पत्तन में बिताकर मुनि साधुचर्या के द्वारा अपने गुरु की सन्निधि में पहुँचे। धन्य व धूसरी ने मुनि के पास गृहस्थ के व्रत धारण किये। उज्ज्वल सम्यक्त्व पालते हुए उसके द्रव्य स्तवना की। समय आने पर दोनों ने साधु धर्म अंगीकारकर सात वर्ष संयम पालकर समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त हुए। सत्पात्र को भावपूर्वक दुग्ध-दान करने से वे दोनों हैमवत क्षेत्र में युगलिक के रूप में पैदा हुए। वहाँ से मरकर वे दोनों सौधर्म देवलोक में उत्तम जाति के डिण्डीर नाम के देव-देवी युगल के रूप में पैदा हुए। वहाँ से धन्य का जीव च्युत होकर नैषधि नल बना तथा धूसरी का जीव तुम्हारी प्रिया दमयन्ती के रूप में पैदा हुआ। तुम दोनों ने पूर्वभव में साधुओं के तप का उद्यापन महोत्सव किया, अष्टापद तीर्थ पर तीर्थंकरों की विधिपूर्वक कुसुम आदि के द्वारा पूजा की, उससे अर्जित पुण्य तुम्हारे इस भव में उदय में आया। उसीके प्रभाव से तुमने अद्भुत राज्य प्राप्त किया। अरिहन्तों की मूर्तियों पर हिरण्य रत्नजटित तिलक चढ़ाने से इसके भाल पर जन्म-जात तेजस्वी तिलक है। बारह घड़ी तक तुम दोनों ने साधु की कदर्थना की। अतः राज्य भ्रंश के साथ बारह वर्ष तक तुम दोनों का वियोग रहा। यह सुनकर नल राजा ने धर्म रंग से तरंगित होकर भैमी की कुक्षि रूपी सरोवर के हंस रूपी पुष्कलकुमार को राज्य की गद्दी पर आसीन किया। फिर भैमी के साथ नल ने गुरु की सन्निधि में प्रव्रज्या ग्रहण की। श्रुतों को ग्रहण करते हुए, परीषहों को सहते हुए विचरण करने लगे । एक दिन कर्म की विचित्रता से तथा काम के दुर्जय होने से नल राजर्षि के मन में किसी प्रकार भैमी के साथ रमण करने का मन हुआ। गुरु ने राजर्षि को मधुर शीतल वाणी के द्वारा भविष्य में होनेवाले श्री स्थूलभद्र स्वामी के दृष्टान्त द्वारा बहुत प्रतिबोधित किया। पर वे प्रतिबोधित नहीं हुए तो गुरु ने उन्हें त्याग दिया। तब पिता देव ने आकर बोध दिया। शीघ्र ही लज्जित होते हुए नल ने अनशन ग्रहण किया । नल के अनुराग से दमयन्ती ने भी वही तप ग्रहण किया। नल मरकर कूबेर हुआ और दमयन्ती उसकी प्रिया हुई। धर्म की आराधना करते हुए भी व्रत की तनिक सी विराधना से भी उसका फल प्राप्त हुआ और कुछ नीचे पदवाले देव रूप को प्राप्त किया । वहाँ से च्युत होकर पुनः मनुष्यत्व को प्राप्त कर उज्ज्वल चारित्र आराधना कर सम्पूर्ण कर्मों को धोकर दोनों ने सिद्धि का वरण किया। पूर्व जन्म से जिनेश्वर की दिव्य पूजा के निमित्त से अर्द्धभरत का उत्तम राज्य प्राप्त हुआ । राजा नल के साथ भीमराजा की सुपुत्री ने जन्मान्तर में भी पुनः अनंतसुख रूप मोक्ष को प्राप्त किया। अतः हमें भी सदैव तीर्थेश्वर के पूजन में तैयार रहना चाहिए, जिससे हमारी मुट्ठी में भी इस लोक व परलोक का सुख प्राप्त हो जावे । इस प्रकार पूर्व में कृत देव पूजा के फल को बतानेवाली नलदमयन्ती कथा पूर्ण हुई ||२४|| अब कौन-कौन किस प्रकार प्रतिमा की पूजा करते हैं, उनके मतों को बताया जाता है गुरुकारिया के अन्ने सड़ कारियाइ तं बिंति । विहिकारियाइ अन्ने पडिमा पूयणविहाणं ॥ २५ ॥ कोई माता-पिता-दादा आदि रूपी गुरुओं के द्वारा बनायी प्रतिमा की पूजा करने का कहते हैं, कोई स्वयं ही प्रतिमा भरवाकर पूजा करने का कहते हैं। कोई विधिविधान द्वारा प्रतिमा का पूजाविधान करने का कहते हैं। ये तो मत हैं। कार्यपक्ष तो एक ही है कि अर्हत् प्रतिमा को देखकर उसकी पूजा करे अन्यथा अवज्ञा होती है ।। २५ ।। 76
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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