SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् उन जिनबिम्बों के भाल पर रखा । तीर्थयात्रा के लिए आये हुए साधुओं को प्रतिलाभित किया और उन्हींकी तपस्या के उद्यापन का महोत्सव किया। हे देवी! तुम धन्य हो ! पुण्यशालिनी हो । इस प्रकार राजा तथा प्रजा द्वारा बार-बार धर्मस्तुति की जाती हुई रानी वीरमति अपने पुर को आ गयी। वे दोनों राजा-रानी दो शरीर एक प्राण के समान कार्य में लीन रहते हुए उन्होंने कितना ही काल व्यतीत किया। काल धर्म प्राप्त करके समान समाधि द्वारा देवलोक में भी वे दम्पति के रूप में उत्पन्न हुए। भारत में आद्य द्वीप के बहुत से विषयों में प्रधान, श्रेष्ठ पोतन - पत्तन में धम्मिल नामक ग्वाला रहता था। उसकी पत्नी का नाम रेणुका था। उन दोनों के वहाँ मम्मण राजा की आत्मा धन्य नाम से उत्पन्न हुई। वह पुत्र विनय से अति उज्ज्वल था। वीरमती का जीव पुनः प्राग्भव के प्रतिबन्ध से देवलोक से च्युत होकर धन्य की पत्नी धूसरी के रूप में उत्पन्न हुआ। धन्य रोज जंगल में अपनी भैंसों को चराने के लिए ले जाता था। क्योंकि ग्वालों की जीवनभर यही आजीविका होती है। मानो, नीले उत्तरीय से प्रावृत की तरह दिशा को दुर्दिशा बनाती हुई, गर्जना के बहाने से चिरकाल से आते हुए लोकों से संभाषण करती हुई, दूध से उज्ज्वल जल धारा के द्वारा अपने यश को फैलाती हुई, पृथ्वी को नवांकुरों के द्वारा अपने संग से पुलकित करते हुए, चारण की तरह मोरो की आवाज द्वारा याचित, विद्युत की ज्वलन क्रिया के बहाने से स्वर्ण की तरह चमकती हुई, धनुषधारी शक्र के विश्व तेजाबी मण्डल को लुप्त करती हुई, चारों और से वर्षारात्रि अवत्तीर्ण हुई। हुए, घड़े की चारों ओर लिपटी हुई मिट्टी की तरह घुटनों तक के कीचड़ में पाँवों को धँसाते हुए घनघोर मेघ के बरसते हुए भी धन्य ग्वाला भैंसों को चराने जंगल गया। गिरती हुई वर्षा की धारा को रोकने के लिए सिर पर छतरी धारण करके चारों ओर घूमते हुए वह भैंसों को चराने लगा। वन में घूमते हुए तप को तपते , उसके संताप से सम्पूर्ण इन्द्रियों को शोषित करते हुए, झंझावात से संगपित, पद्माभ के समान अंगों को संकुचित किये हुए पर्वतराज के समान निष्कम्प, एक पाँव पर खड़े हुए एक मुनि को धन्य ने देखा । परीषह से आक्रान्त उन मुनि को देखकर अद्भुत भक्ति से उत्पन्न श्रद्धापूर्वक छत्र धारक की तरह वह उन मुनि के शिर पर छतरी तानकर खड़ा हो गया। जैसे- अति त्यागी पुरुष देते-देते भी उससे निवृत्त नहीं होता, वैसे बादल भी वृष्टि करने से पीछे नहीं हटे और धन्य के परिणाम भी मुनि के प्रति श्रद्धा में वर्द्धित होते गये। आखिर निर्विग्न होकर मेघ क्रम से वृष्टि करते हुए लौट गये। वृष्टि बन्द होने से मुनि का कायोत्सर्ग भी पूर्ण हुआ। धन्य ने भी अपने आपको धन्य मानते हुए कर्त्तव्यपरायण होकर उन मुनि को नमस्कार किया । पुनः उनके पाँवों को रगड़-रगड़कर पोंछने लगा । तब वत्सलभाव युक्त मुनि ने कहा- तुमने मेरे सिर पर छतरी क्यों की? तो उसने कहा- वर्षा जल से बचाने के लिए। हे मुने! देखिये ! अभी भी इस भूमि पर चलना समर्थ नहीं है। अतः हे महर्षि आप क्या यहाँ उड़कर आये हैं? अथवा तप, तन्त्र, मन्त्र आदि की शक्ति से व्योमचारी होकर यहाँ आये हैं? मुनि ने कहा- मैं पाण्डुदेश से यहाँ आया हूँ। लंकापुरी में आये हुए मेरे गुरु को नमन करने के लिए वहाँ जा रहा हूँ। यहाँ आते हुए मार्ग में चोरों की तरह बादलों ने घेर लिया। वृष्टौ सत्यां च साधूनां गमनं हि न कल्पते । वृष्टि होने पर साधु को चलना कल्पनीय नहीं है। अतः वृष्टि बन्द होने तक अभिग्रह धारण करके मैं सप्ताह भर यहीं स्थित रहा। अब अभिग्रह पूर्ण हुआ, अतः किसी उपाश्रय में जाऊँगा । तब धन्य ने साधु से कहा- पृथ्वी अभी भी कीचड़ युक्त होने के कारण चलना बहुत कठिन है। अतः आप इस भैंस पर आरूढ़ होकर नगर में प्रवेश करें। उन साधु ने कहा- साधुओं को सवारी पर चढ़ना अयुक्त है। जिस कार्य से किसी भी प्राणी को पीड़ा पहुँचती है, वे सभी कार्य साधु त्याग देते हैं। महर्षियों 75
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy