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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नल दमयन्ती की कथा सच निकली। राजा के याचना करने पर कुब्ज ने राजा को अश्व विद्या दी और स्वयं फल संख्यान विद्या ग्रहण की। सूर्योदय के साथ ही रथ कुण्डिनपुर के समीप पहुँच गया। दधिपर्ण नगर को देखकर मानो भैमी को प्राप्त कर लिया-इस प्रकार खुश हुआ। उधर भैमी ने सोते हुए अंतिम रात्रि में स्वप्न देखा। तब उसने स्वप्नपाठक की तरह अपने पिता को रात्रि में देखा हुआ स्वप्न निवेदन किया-हे तात! मैंने आज साक्षात् शांतिनाथ प्रभु के शासन की अधिष्ठात्री यक्षिणी निर्वृत्ति देवी को देखा। उसके द्वारा कोशल उद्यान यहाँ लाया गया। आकाश से दिव्य जल की वर्षा हुई। मैं वृक्ष पर चढ़ी। उस देवी द्वारा लक्ष्मी के निवास करने योग्य कमल मुझे दिये गये। पूर्व में आरूढ़ हुए पक्षी पके हुए पत्तों की तरह गिर गये। उसके स्वप्न को सुनकर भीमराजा ने कहा-हे पुत्री तुम्हारा स्वप्न सत्फलदायक है। तुमने जो निवृत्ति देवी देखी, वह अद्भुत पुण्यराशि है। कौशल के ऐश्वर्य के लाभ के समान कोशल उद्यान का दर्शन है। आकाश से दिव्य जल की वर्षा राज्य की प्राप्ति की सूचना देता है। वृक्ष पर चढ़ने के समान तुम्हारा नल से संगम होगा। पक्षियों के गिरने के समान कबर का राज्य से पतन होगा। इस प्रकार इस स्वप्न के दर्शन से तम्हें नल शीघ्र ही प्र तब दधिपर्ण का रथ नगर द्वार के समीप आया। मंगल नामके पुरुष ने भीमराजा को उसका आगमन बताया। राजा भीम ने भी सामने जाकर मित्र की तरह उसको गले से लगाया। उसको आवास आदि उपलब्धकर अतिथि की तरह आतिथ्य किया। भीम ने कहा-तुम्हारा कूबड़ा सूपकार सूर्यपाक विधि को जाननेवाला है। यह वार्ता अति आश्चर्यकारी है। सो मैं अभी इस कुब्ज के द्वारा सूर्यपाक रसवती बनवाना चाहता हूँ। दधिपर्ण ने मुख से हाँ का शब्द निकलते ही कुब्ज ने भी तत्क्षण अमृत रस के समान सूर्यपाक रसवती तैयार कर दी। दधिपर्ण तथा भीमराजा ने सपरिवार देवों को भी दुर्लभ ऐसे भोजन को ग्रहण किया। भैमी ने भी वह भोजन मंगाकर ग्रहण किया। पूर्व में खाये हुए भोजन के समान स्वाद पहचानकर उसने पहचान लिया कि वह कूबड़ा नल ही है। उसने कहा-यह नल ही है। पहले ज्ञानी ने कहा था कि नल के सिवाय सूर्यपाक विधि इस भरत क्षेत्र में कोई नहीं जानता। क्रीड़ा के द्वारा, लज्जा के द्वारा, मन्त्र अथवा तन्त्र से इसकी अंग विकृति होने पर भी वह नल ही है, इसमें कोई संशय नहीं है। नल की अंगुलि के स्पृष्ट मात्र से ही मैं रोमांचित हो जाती हूँ। नल के हाथ की बनी हुई सूर्यपाक रसवती खाकर भी मुझे वैसा ही प्रतीत हो रहा है। अतः वह नल ही है। जब उससे पूछा गया तो उसने हंसकर कहा-राजा को भी भ्रम हो गया था। पर कहाँ तो साक्षात् इन्द्र के समान वह नल और कहाँ नारक की आकृतिवाला मैं। फिर भी बहुत रोकने पर भी जब मन नहीं माना, तो आँख में रहे हुए तिनके की तरह उसने अपनी अंगुली से हल्के से उसको स्पर्श किया। उसके उतने मात्र स्पर्श से ही भैमी का शरीर वर्षा के जल के संपर्क से उत्पन्न हुए नवांकुर की तरह हो गया। ___उस समय तो मुझे नींद में सोता छोड़कर चले गये। चिरकाल के बाद आज दर्शन हुए हैं। हे प्राणप्रिय! अब कहाँ जायेंगे? इस प्रकार कहकर उनको पकड़कर महल के भीतर ले गयी। वैदर्भी के अत्यधिक आग्रह करने पर कुब्ज नल बिल्व व करण्डक से वस्त्र-आभरण आदि लेकर उन्हें धारण करके अपने रूप में अवस्थित हुआ। उनको उस स्थिति में देखकर भैमी प्रेम के पूर की तरह आतुर होती हुई पादप से लिपटी हुई लता की तरह गाढ़ रूप से नल से लिपट गयी। भवन के मध्य से क्षणभर बाद नल को बाहर आया हुआ जानकर भीम ने अपने सिंहासन पर अर्धभरत के अधिपति को बैठाया। फिर सार्वभीम राजा ने कहा-हम 72
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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