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________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् तुम्हारे अधीन हैं। अतः हे नैषधि! हमें उन-उन कृत्यों के लिए आदेश दीजिए। दधिपर्ण ने भी उसको प्रणाम करके कहा-मैंने अज्ञानतावश स्वामी को नहीं पहचाना। अतः मुझे क्षमा कीजिए। पूर्व में वर्णित घटनाक्रम में धनदेव का उल्लेख आया था, वह धनदेव राजा के पास आया। यह मेरा पूर्वउपकारी है-ऐसा सोचकर भैमी ने उसका अति सम्मान किया। ऋतुपर्ण राजा भी चन्द्रयशा देवी तथा चन्द्रवती पुत्री के साथ वहाँ आया। उस तापसपुर में रहनेवाला वसन्त नाम का सार्थपति भी वहाँ आया। अपने पिता के पास से दूतों को भेजकर भैमी ने इन सभी को बुलाया था। भीमराजा ने सभी का उस-उस प्रकार से सम्मान करके उनउन उपकारियों को कृतज्ञ भाव दर्शाया। जिस-जिसने भी भैमी के लिए कुछ भी किया था, उन सभी को भीमराजा ने अपनी पुत्री के वात्सल्य के वश होकर नित्य सम्मानित किया। जिनेश्वर की कृपा से प्रिय का संगम होने से भैमी का अभिग्रह पूर्ण हुआ। स्नान करके अंगों का श्रृंगार करके लाल वस्त्र धारण करके पुष्प के आभरण रूप वस्त्रों को धारण किया। जो विगय आदि पूर्व में छोड़े थे एवं पत्र-फलादि ग्रहण किये थे, वे सभी स्वीकार किये, जो आहती होते हैं उनकी यह स्थिति होती है। ___एक दिन वे सभी भीमराजा के आस्थान मण्डप में बैठे हुए थे। प्रातःकाल की बेला में दूज के चन्द्र के समान चमकता हुआ कोई प्रभावान् देव आया। उसने अंजलिपूर्वक भैमी को नमस्कार करते हुए कहा-आपके द्वारा पर्वत की गुफा में जिसे प्रबोधित करके आर्हती धर्म ग्रहण करवाया, वह तापस कुलपति मैं हूँ। मैं जिनधर्म के प्रभाव से सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होकर श्रीकेशर विमान का स्वामी केसराह्न सुर हुआ हूँ। इस प्रकार कहकर उसके पाँवों में सात करोड़ स्वर्ण मोहरों के द्वारा अभ्यर्चना करके कृतज्ञता प्रकाशित करके वह देव अन्तर्ध्यान हो गया। तब राजा भीमदेव ने दधिपर्ण आदि अनेक राजाओं से समन्वित होकर नल का राज्याभिषेक किया। फिर नल के आदेश से उन महाराजाओं द्वारा विपक्ष में क्षोभ उत्पन्न करनेवाली भूतल को रौंदनेवाली सेना भेजी। नल उन सभी राजाओं व उनकी सेनाओं के साथ कबर के द्वारा शठपूर्वक हरण की हुई अपनी राज्यलक्ष्मी को पुनः प्राप्त करने के लिए कोशला की ओर चला। कितने ही दिन के प्रयाण से सैनिकों द्वारा पृथ्वी को आच्छादित करते हुए नल कोशला के रतिवल्लभ उद्यान में रुका। सेना से महीतल को आक्रान्त करते हुए आये हुए नल के समाचार सुनकर कूबर मृत्युदन्त रूपी चक्र में आये हुए के समान काँपने लगा। जब दूत ने कहा कि राजा द्वारा युद्ध किया जाना चाहिए, तब नल ने कहा कि हम सहोदर हैं, अतः शस्त्रों के द्वारा युद्ध करना उचित नहीं है। कूबर ने नल को जीवित मानकर युद्ध के अभाव में पुनः द्युत द्वारा शीघ्र ही नल को ईप्सित श्री देना आरंभ कर दिया। नल का छिन्न-भिन्न हुआ भाग्य स्वतः ही सौभोग्य को प्राप्त हुआ। उसने द्युत के द्वारा उस राज्य को पुनः प्राप्त किया। भाग्यरूपी हेतु की विजय होने से सर्वत्र जीत ही होती है। शक्र के द्वारा भी दुर्जय ऐसे अपने राज्य को नल ने चक्रवर्ती के स्त्रीरत्न की तरह भैमी के साथ अलंकृत किया। सभी राजाओं के बीच उपेन्द्र की तरह भुजा बल स्फुरित हो रहा था। अर्द्धभरत में रहे हुए राजाओं द्वारा नल को उपहार भेजे गये। दान, मान तथा संभाषण द्वारा आश्रितों को नल ने आश्वस्त किया। उसके सौजन्य की अतिशयता से द्वेषी भी तुष्ट हो गये। उसकी उदारता तथा सौजन्य का तो कहना ही क्या, कूबर को भी पूर्व की तरह युवराज बना दिया। "धर्म से ही सभी विभूतियाँ हैं।" इस प्रकार धर्म के प्रति कृतज्ञता भाव को वर्द्धित करते हुए नल भैमी के साथ वहाँ प्रीतिपूर्वक चैत्यों को वन्दन करता उस पवित्रात्मा ने आर्हत-रथयात्रा करवायी। गुरु व गुणियों की नित्य 73
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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