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________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् मण्डप में जाकर बोला-हे देव! देवी दमयन्ती का स्वयंवर कल प्रातः पुनः आयोजित किया जा रहा है। राजा ने यह सुनकर विचार किया कि भैमी मुझे पहले भी इच्छित थी। लेकिन मैं पक्षी की तरह उड़कर वहाँ कैसे पहुँचुं? कुब्ज ने विचार किया-वैदर्भी अपने शील का लोप कभी नहीं करेगी। युगान्त होने पर सागर अपनी मर्यादा छोड़ सकता है, पर भैमी ऐसा नहीं कर सकती। फिर भी असंभव होने पर भी भैमी का मन कदाचित् चलित हो जाय! पर मेरे जीते जी कोई अन्य उसको ग्रहण करने में कैसे सक्षम हो सकता है? मैं छह प्रहर में ही दधिपर्ण को वहाँ ले जा सकता हूँ। उसके साथ इस प्रकार मेरा भी वहाँ जाने का प्रसंग प्राप्त होगा। तब उसने कहा-हे राजन्! दुःख न करें। इसका निदान कहिए कि अब क्या करना चाहिए? राजा ने कहा-एक बार दमयन्ती मेरे हाथ से निकल गयी थी। अब फिर प्राप्त होने वाली है। पर करोड़ों मुक्ताओं का मूल्य भी उस कार्य को सफल बनाने में सक्षम नहीं है। स्वर्ग प्रवेश करने के समान मंगल क्षण उपस्थित हुआ है कि दमयन्ती का पुनः स्वयंवर है। पर कल ही है। यह खेद का विषय है। काल बहुत कम है और मार्ग बहुत ज्यादा है। दूत भी यह संदेश लेकर अभी आया है। तो वहाँ कैसे जाया जायगा? यह सोचकर भैमी के लिए मन खिन्न होता है। कुब्ज ने कहा-हे महीपति! दुःख मनाना बन्द करो। शीघ्र ही मुझे अश्वसहित रथ दो। जिससे मैं आपको प्रातः ही कुण्डिनपुर पहुँचा दूंगा। राजा ने सोचा-यह सामान्य मनुष्य नहीं है। जरूर कोई देव या विद्याधर है। इस प्रकार विचार करते हुए उसने जैसा कहा वैसा ही रथ अर्पित किया। ___ कुब्ज ने उच्च जाति वाले अश्वों से रथ को व्यवस्थित करके नृप से कहा-यहाँ आकर बैठिये, कल का सूरज आप कुण्डिनपुर में देखेंगे राजा के छत्र को धारण करनेवाले दो पुरुष, दो चामरधारी, राजा तथा छठवाँ कुब्ज-ये छः लोग रथ पर आरूढ़ हुए। रथ के मध्य भाग में वस्त्र द्वारा बिल्व फल तथा करण्डिका को बाँध करके कुब्ज ने देव गुरु को स्मरण करके, रथ को रवाना किया। नल के द्वारा प्रेरित अश्व देव-अश्वों की तरह पृथ्वी को स्पर्श न करते हुए चलने में आकर्षित हुए। रथ के तीव्रतापूर्वक गमन से दधिपर्ण राजा का उत्तरीय हवा के द्वारा चोट की तरह उड़ा लिया गया। दधिपर्ण ने कहा-हे कुब्ज! हवा ने मेरे वस्त्र को उड़ा लिया है। मैं जब तक वस्त्र को मंगवाऊँ तब तक रथ को रोको। उसने कहा-आपने जब तक मुझे वस्त्र की वार्ता कही, तब तक यह रथ पच्चीस योजन आगे आ गया है। मैं जब तक इन उत्तम अश्वों को मध्यम गति में लाऊँगा तब तक उतने काल में ये उससे भी दुगुना रास्ता पार कर लेंगे। ___ फलित वृक्ष को दूर से ही देखकर राजा ने कुब्ज से कहा-इस वृक्ष की फल संख्या को मैं तुम्हें बिना गिने बताऊँगा। लौटने पर तुम लोग इसका कौतुक देखोगे। इस समय स्वयंवर है। अतः समय बिताना योग्य नहीं है। ___कुब्ज ने कहा-राजन्! समय की देरी के लिए मत डरो। मुझ जैसे सारथी के रहते हुए कुण्डिनपुर अब दूर नहीं है। मैं मुष्टि के प्रहार मात्र से, विश्वभूति ने जैसे कपित्थ के फलों को गिराया था वैसे ही इन सभी फलों को आपके सामने गिरा दूंगा। दधिपर्ण ने कहा-तो फिर देर किस बात की? ये फल अट्ठारह हजार की संख्या में हैं। इसमें कोई संशय नहीं कुब्ज ने आकाश से बरसते हुए ओलों की तरह उन फलों को गिराया और गिना। राजा द्वारा कही हुई बात - 71
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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