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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नल दमयन्ती की कथा आख्यान बता दिया। फिर देव ने कहा-हे वत्स! तुम वन्य जीवों की तरह वन में घूम रहे हो। अगर कहीं जाने की इच्छा हो तो कहो। मैं शीघ्र ही तुम्हें वहाँ ले जाऊँगा। उसने कहा-तात! मुझे संसुमारपुर ले चलो। उसे वहाँ पहुँचाकर देव अपने कल्प को चला गया। नल उस पुर के पास नन्दनवन में गया। वहाँ उसने पुण्य को मूर्तरूप बनाने वाले चैत्य को देखा। उस चैत्य में नेमिनाथ भगवान् की प्रतिमा को नल ने नमस्कार करके, स्तुति करके चिरकाल तक ध्यान किया। फिर वह पुर में प्रविष्ट हुआ। उस समय उस नगर में जंगम अंजनादि के समान मत्त हाथी हस्तिशाला से बाहर आकर स्तम्भों को कमल नाल की तरह उखाड़ने लगा। मद के अवलेप से वायु को भी सहन नहीं करता हुआ वह दुर्द्धर अपने पर किसी सवार की आशंका से मस्तक हिलाता हुआ अश्रान्त मन से दौड़ता जा रहा था। प्राणी भंजन कल्पान्त पवन की तरह वह महावृक्षों को अपनी सूंड से उखाड़-उखाड़कर आकाश में उछालता हुआ इधर-उधर रखड़ रहा था। तब पुर के प्राकार पर चढ़कर दधिपर्णनृप ने कहा-जो इस हाथी को वश में करेगा, मैं उसकी इच्छा पूरी करूँगा। राजा के वचनों को सुनकर नलकुब्ज ने कहा-वह हाथी कहाँ है? वह हाथी कहाँ है? मैं उसे अवश्य ही क्षणभर में वश में कर लूँगा। कुब्ज के बोलते ही वह हाथी गर्जना करता हुआ वहाँ आ गया। कुब्ज ने मल्ल के समान मल्लयुद्ध करने के लिए उस गन्धसिंधुर को आह्वान किया। तब पुरजनों ने कहा-हे कुब्ज! तुम दृष्टि विष सर्प की भाँति इस हाथी के सामने मत जाओ। लेकिन गज-वशीकरण में प्रवीण होने से कुब्ज ने पीछे से, अगल से, बगल से चलकर के उस हाथी को खूब छकाया। तब अश्व को वश में करनेवाले अश्वदम की तरह, दन्दशूक को वश में करने वाले नरेन्द्र की तरह, महामात्य की तरह उसने उस गजेन्द्र को खेदित किया। बन्द आँखों से सोये हुए की तरह हाथी शान्त हो गया। जैसे बन्दर फुदककर वृक्ष पर चढ़ता है वैसे ही वह कुब्ज उछलकर हाथी पर बैठ गया। इस प्रकार गज को वश में करके, हाथ में अंकुश लेकर, उस हाथी को अपने आदेश को आज्ञा की तरह देकर उसे चलाया। लोगों ने स्मित मुख द्वारा जय-जयकार की माला पहनायी और राजा ने उसके कण्ठ में स्वर्ण श्रृंखला आरोपित की। तब वह कुब्ज उस हाथी को लेकर हस्तिसाला में आया और ब्रह्माण्ड की हस्तिशाला में अपना यश फैलाया। समान ऐश्वर्य के पात्र की तरह प्रणिपात करके बिना किसी आशंका के वह कुब्ज राजा के पास आया। तब राजा ने कहा-हे कुब्ज! तुम्हारी हस्तिशिक्षा से तो हम बहुत प्रभावित हुए। क्या तुममें अन्य भी कोई अद्भुत विज्ञान है? कुब्ज ने राजा से कहा-शिष्ट व्यक्ति अपनी प्रशंसा आप नहीं करते। मैं इसी प्रकार आपको सूर्यपाक रसवती कला दिखाऊँगा। तब कौतूहल से कहे हुए की तरह जाकर नृप ने घर से कुब्ज को सूर्यपाक के लिए चावल आदि अर्पित किये। सूर्य के आतप में थाली को रखकर सूर्यपाक विद्या जपते हुए नल ने स्वर्गलोक से आयी हुई भोज्य सामग्री के समान दिव्य रसवती को बनाया। उस प्रकार की रसवती को परिवार सहित भोग करके दधिपर्ण राजा ने प्रशंसा में अपना शिर हिलाया। अहो! इसकी सुस्वादता नयी ही है। कितनी सरसता है? अहो! अमृत भी इसके समान सर्व-इन्द्रियों को आह्लादकारी नहीं होगा। तब नृप ने सोचा यह विद्या तो केवल नल जानता है, अतः क्या इसने नल के सौहार्द से विद्या सीखी है? अथवा क्या यह नल है? अथवा नल की हूबहू नकल है? उसका कामदेव जैसा रूप मैंने पहले देखा है। पर २०० योजन की दूरी पर नल यहाँ कहाँ से आयगा? कहां वह अर्द्ध भरत का राजा और कहाँ यह कुब्ज? नल सा अन्य कोई हो ही नहीं सकता। राजा ने कुब्ज को खुश करने के लिए वस्त्रालंकार आदि दिये। एक लाख सुवर्णमुद्रा तथा पाँचसौ ग्राम दिये। 64 -
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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