SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् कुब्ज ने वस्त्रादि तथा ग्रामादि एक भी स्वीकार नहीं किया। राजा ने कहा- तुम्हारी अन्य कोई इच्छा है तो कहो । त उसने कहा- आपके राज्य में मृग के शिकार को वर्जित कर दें । राजा ने उसके वचनों का बहुमान करते हुए वैसा ही किया । अन्य किसी दिन एकान्त में राजा ने कुब्ज से कहा- हे भद्र! तुम कौन हो ? तुम्हारी वास्तविकता क्या है? तुम कहाँ से आये हो? उसने कहा- मैं कोशलपुरी का रसोइया हुण्डिक हूँ। नल का अतिप्रिय होने से नल ने मुझे अपनी सारी कला दे दी। कूबर ने छल से नल का अखिल राज्य जीत लिया । भैमी रूपी परिवार मात्र के साथ नल ने वनवास का आश्रय लिया। नल की विपन्न दशा को देखकर निराशा को प्राप्त होते हुए मैंने भी उस शठ अल्पज्ञानी कूबर का त्याग कर दिया। दधिपर्ण राजा नल की दुर्दशा को सुनकर बहुत समय तक शोकमग्न रहा। वह सोचने लगा को वा न दूयते महदापदा । इस जग में कौन है, जो महान् विपत्ति से दुःखित नहीं होता । किसी दिन दधिपर्ण राजा ने किसी कार्यवश अपना दूत वैदर्भी के पिता के पास भेजा। राजा सौहार्द्रवश वह दूत काफी दिनों तक वहाँ रहा। किसी प्रसंग पर उसने बताया कि देव ! मेरे स्वामी के पास राजा नल का रसोया आया हुआ है। नल के उपदेश से वह सूर्यपाक क्रिया को जानता है । दमयन्ती ने जब यह सुना तो वह तात के चरणों अर्ज करती हुई बोली- देव! किसी भी प्रकार से उस सूपकार का पता लगवाइये। क्योंकि नल के सिवाय सूर्यपाक रसवती को अन्य कोई नहीं जानता । अतः छद्मवेश में कदाचित् वह नल ही होवे । तब राजा ने कुशल नाम के कुशल विप्र को दधिपर्ण राजा के पास सूपकार की परीक्षा करने के लिए भेजा। उसका क्या रूप है। वह नल के रूप में ही है या अन्य रूप में है, कोई देव अथवा दानव नल का रूप धारण करके आया है या छद्मवेश में वह नल ही है। इस प्रकार सभी बातों का पता लगाने के लिए विप्र को भेजा । शुभ शकुनों को प्राप्त करके उत्साहित होता हुआ वह सुंसुमारपुर पहुँचा। उसने कुब्ज को देखा और विचार किया-कहाँ नल और कहाँ यह कूबड़ा । कहाँ हंस, कहाँ कौआ ? निश्चय ही विरह के संभ्रम से भैमी को इसमें नल की भ्रान्ति दिखायी दी है। फिर भी सम्यक् प्रकार से निश्चित करने के लिये राजसन्निधि में जाकर नाट्य अवसर की अभ्यर्थना करके नाटक प्रारंभ किया। राजा अपने संपूर्ण सभासदों, परिवार, मन्त्रीश्वर जीवल, प्रतीहार और हुण्डिक सूपकार के साथ नाटक देखने आया। भैमी आदि की भूमिका में कुशल सूत्रधार नट नियुक्त किये गये। बहुत देर बैठे रहने के बाद भी जब नाटक शुरू नहीं हुआ, तो राजा कहा- अब क्यों देर कर रहे हो ? द्वार पर स्थित है रंगजीवियों ! शीघ्र ही नाटक प्रस्तुत करो। सूत्रधार ने प्रविष्ट होकर कहा- यह नलान्वेषण नाटक है, जो अभिनीत किया जा रहा है। इसे देखने के लिए सभी सावधान हो जाएँ । नल ने अपने मन ही विचार किया कि क्या यह नल मैं ही हूँ या अन्य कोई? हो सकता है, अन्य ही हो । क्योंकि यद्वाऽपारे जगत्यस्मिन्नामसाम्यं न दुर्लभम् । इस अपार संसार में एक ही नाम की साम्यता दुर्लभ नहीं है। राजा ने कहा- मैं सावधान हूँ। तुम शीघ्र ही इसे प्रस्तुत करो । नेपथ्य से आवाज आती है - हे आर्यपुत्र ! मेरी रक्षा करो। रक्षा करो। आकाश से गिरी हुई पृथ्वी के द्वारा धारण की हुई के समान जंगली हिंसक पशुओं से व्याप्त कान्तार में वह अकेली भयभीत हो रही है। 65
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy