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________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् सुना। अगर तुम निरपेक्ष होकर प्राणियों का उपकार करोगे, तो तुम्हारा किया हुआ उपकार व्यर्थ नहीं जायगा। व्यञ्जन के समान उस स्वर का पीछा करते हुए नल कुञ्ज के मध्य में गया। रक्षा करो-रक्षा करो बोलते हुए दन्दशूक सर्प को देखा। उसने सोचा यह सर्प मेरा कुल अथवा मेरा नाम कैसे जानता है? सर्प होते हुए भी यह मनुष्य की भाषा बोलता है-यही आश्चर्य है। नल के पूछने पर उसने कहा-अवधिज्ञान से मैं तुम्हारा कुलादि जानता हूँ। पूर्वभव में मनुष्य होने से मुझे उस भाषा का अभ्यास है। तब अनुकम्पा से उसे खींचने के लिए लता गुल्म के अर्धभाग को नल ने श्रृंखला की तरह उसके चारों और बांधा। जैसे काँच की चूड़ियाँ स्त्रियों के हाथों में शोभित होती हैं वैसे ही राजा के द्वारा वेष्टित वह नाग अपने फण से शोभित हो रहा था। तब कृपालु नल ने खींचकर उसे तृणरहित साफ भूमि में ले गया। उसे श्रृंखला से मुक्त करने के लिए उसने जैसे ही हाथ बढ़ाया, नाग ने उसे डस लिया। उसी क्षण अनिष्ट वस्तु की तरह साँप को भूमि पर फेंककर राजा ने उसे उपालम्भ दिया-कितनी अच्छी है तुम्हारी कृतज्ञता! मुझ उपकारी का बदला तुमने अच्छे उपकार से चुकाया। क्योंकि होतुरप्यग्निः किं न दाहाय जायते । हवन की पवित्र अग्नि भी क्या दाहक नहीं होती? दवा की तरह विष संपूर्ण शरीर में फैल गया। उसका शरीर टेढ़ा हो गया। नैषधि खण्डित चन्द्रमा की तरह हो गया। वह दावानल से युक्त पर्वत की तरह पीला पड़ गया। हाथी की तरह उसके दाँत बाहर निकल आये। जलोदर के रोगी की तरह उसके हाथ-पाँव पतले तथा पेट मोटा हो गया। वह अंधकार की तरह काला हो गया। ज्यादा क्या कहा जाय? सर्वात्मना रूप से नैषधि फूटे हुए घड़े की तरह नजर आने लगा। उसने विचार किया कि इस प्रकार के शरीर के साथ मेरा जीना निष्फल है। अतः इसे सफल बनाने के लिए मुनिचर्या को धारण करूँ। इस प्रकार नल के चिंताग्रस्त हो जाने पर तत्क्षण वह नाग सर्पवेश को छोड़कर देवरूप में प्रकट हुआ। उसने नल से कहा-दुःखी होना बन्द करो। मैं तुम्हारा पिता निषध हूँ। जिसने तुम्हें राज्य देकर दीक्षा ली एवं मरकर ब्रह्मलोक में सुर रूप में उत्पन्न हुआ। तुम्हारी दुर्दशा जानकर माया से भुजंग का रूप धारण करके तुम्हारे अंगों को विद्रुप बनाया है। हे वत्स! यह विरूपता निश्चय ही तुम्हारे उपकार के लिए है। कहा भी है अग्नियोगः सुवर्णस्य वर्णिकावृद्धये न किम् । अग्नि के संपर्क से क्या सोने की चमक में वृद्धि नहीं होती? तुमने सभी राजाओं को जीतकर अपने किंकर बनाकर अंगरक्षक बनाया है, वैसे ही यह विद्रुप भी तुम्हारा अंगरक्षक बनेगा। अभी प्रव्रज्या का विचार मन में मत लाना। क्योंकि तुम फिर से अर्धभरत का राज्य चिरकाल तक भोगोगे। व्रत योग्य काल तुम्हे अपने आप प्रज्ञापित होगा। क्योंकि कालकृता कृषिरपि भवेत् फलवती यतः । काल में की गयी खेती ही फलवती होती है। हे वत्स! इस बिल्व तथा रत्नकरण्डक को ग्रहण करो। पवित्र जैन धर्म की तरह इनकी रक्षा करना। अगर तुम अपने स्वरूप को प्राप्त करना चाहो तो बिल्व को फोड़ना। तब तुम वस्त्रों को देखकर देवदूष्य वस्त्रों को पाकर विस्मित रह जाओगे। रत्नकरण्डक को खोलोगे तो इसमें हार आदि दिव्य अलंकार देखोगे। देवदूष्य वस्त्रों को पहनकर तथा मुक्ताहार आदि से विभूषित होकर तत्क्षण ही तुम्हें अपना स्व-स्वरूप प्राप्त हो जायगा। ___ तब नल ने पूछा-तात! मेरे द्वारा त्यक्त भैमी अब कैसी है? पिता देव ने कहा कुण्डिनपुर पहुँचने तक का पूरा 63
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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