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________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् दिखायी न दिये। इस प्रकार अनंत विकल्पों के समूह से व्याकुल होकर दिशाओं-विदिशाओं को देखती हुई अपने प्रिय को न पाकर उसे अपना स्वप्न याद आया। उसने विचार किया कि पत्र, पुष्प, फलों से युक्त आम्रवृक्ष के समान नल नृप है। उनके राज्य, सुख आदि का संभोग मेरे द्वारा फलास्वाद के समान है। वन-हस्ती के द्वारा उस आम्रवृक्ष को उखाड़ने के समान नैषधि का भाग्य से राज्य भ्रंश होकर विप्लव होना है। मैं आम्रवृक्ष से गिरी, जिसके फलितार्थ में मेरा प्रिय से वियोग हुआ है। इस स्वप्न से जान पड़ता है कि मेरे लिए प्रियदर्शन दुर्लभ है। तब वैदर्भी ने मुक्त कण्ठ से रोना शुरु कर दिया। स्त्रीणां प्रकृतिभीरूणां भवेधैर्य किमापदि। प्रकृति से भीरु स्वभाववाली स्त्रियों को आपत्ति में धैर्य कैसे हो? हा! हा! नाथ! आपने मुझे क्यों छोड़ा? क्या मैं आपके लिए भारभूत हो गयी थी। अपना ही शरीर क्या खुद को भारभूत लगता है? मैं दीन होकर तुम्हें प्रार्थना करती हूँ। हे कानन देवता! शीघ्र ही मेरे भर्ता को मुझे प्राप्त कराओ अथवा उनका अनुगामी पथ दिखाओ। हे पकी हुई वालुका के समान पृथ्वी! फट जाओ। ताकि तुम्हारे कोटर में प्रवेश करके पाताल को प्राप्तकर मैं परम निर्वृत्ति को प्राप्त करूँ। इस प्रकार वह विलाप करती हुई अश्रु कणों को गिराती हुई, छोटी नदी के समान दृष्टि से जगत् में रहे हुए वृक्षों को सींच रही थी। तपती हुई शिला पर मत्सय की तरह नल के बिना प्रज्वलित विरह की आग कहीं भी निवृत्ति को प्राप्त नहीं हो रही थी। इस प्रकार वन में इधर-उधर भटकते हुए उसने अपने पटाञ्चल में लिखे हुए अक्षरों को देखा। मानो उसे अपने प्रिय की प्राप्ति हो गयी हो, इस प्रकार प्रसन्न होकर विकसित नयनों से उन अक्षरों को पढ़ा। विचार किया कि मुझे छोड़कर स्वामी देह सहित अन्यत्र गये हैं। आदेश के कथन के साथ उनका मन तो मुझमें ही समाया हुआ है। गुरु के आदेश की तरह पति के इस आदेश का बिना उल्लंघन किये यथोक्त विधान के द्वारा मेरा इस लोक में कोई भी दोष नहीं होगा। अतः पति की आज्ञा से मुझे अपने पैतृक घर ही निःशंक होकर जाना चाहिए। श्वसुर गृह तो पति के बिना स्त्रियों के लिए परिभव का कारण बनता है। इस प्रकार विचार करके नल की आज्ञा को नलवत मानकर दमयन्ती वट वृक्ष से दक्षिण दिशा में चल पड़ी। क्षुधा से कराल शार्दुल दृष्टि से घातक, अग्नि से डरने के समान उस सती के करीब नहीं आये। अपनी छाया को ही अपना प्रतिद्वन्द्वी मानकर उसे नहीं सह सकनेवाले हाथी ने भी सिंही के समान उस सती से डरकर दूर से ही रास्ता छोड़ दिया। श्यामलता को धारण करनेवाला धूम से ध्यामल आकाश जैसे वृष्टि के स्पर्शमात्र से उपशान्त हो जाता है वैसे ही जंगल का दावानल सती की दष्टिमात्र से उपशान्त हो गया। फणो को सिर पर धारण किये हुए धृतछत्र की तरह अवनि को आच्छादित करनेवाले सर्प उस नागदमनी सती को देखकर दर चले गये। कोई भी उपसर्ग उसके मार्ग में उपद्रव नहीं कर सका। क्योंकि पतिव्रतात्वमेवेह योषितां ह्यङ्गरक्षकम्। पतिव्रत्य धर्म ही स्त्रियों का अंगरक्षक होता है। बिखरे हुए बालों वाली वह वन में चरवधू की तरह, सर्वांग से बहते हुए पसीने की बूंदों से ओतप्रोत जल देवी की तरह लग रही थी। काँटोंवाले वृक्षों से संघर्षित तन से निकलने वाली रक्त-बूंदों से रति की तरह वह कैसी कश्मीर की विरलछटा सी प्रतीत होती थी। अंधकार से ग्रस्त चन्द्र की कला की तरह, रास्ते की धूल से जिसकी द्युति का हरण हो गया हो, ऐसी सती दमयन्ती दावानल के भय से डरे हुए हाथी की तरह तीव्र वेग से चली जा रही थी। कुछ दूर जाने के बाद सती ने महासुख के साधनों से युक्त राजा के समान सेनावाले वसन्त सार्थवाह के सार्थ को देखा। उसने सोचा-अपार जंगल से निकलने में महारथ रूप इस सार्थ का साथ पा लूँ, तो निश्चय ही यह मेरा 51
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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