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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नल दमयन्ती की कथा (सूर्य को देखने की आशंका से रहित) मेरे सामने आज भूख प्यास से मुरझायी हुई, एक वस्त्र से ढकी हुई राजा भीम की सुपुत्री पृथ्वी पर सोयी हुई है। हा! यह सब कर्मचण्डाल का ही दोष है। अतः हे देवी! वज्र के समान आत्मा को कठोर बनाकर मैं जाता हूँ। कुछ कदम आगे जाकर नल ने स्वयं को निन्दापूर्वक कहा-हे पापी! चाण्डालों के अधीश नल! स्वकुलपांशन! पति भक्ति में रंजित इस महासती को अकेली इस वन में छोड़कर जाते हो। हाय! हाय! तुम इसके विश्वास की वञ्चना कर रहे हो। इस प्रकार आत्मा का अपमान करके अंजलि द्वारा करबद्ध होकर, मस्तक पर लगाकर वनदेवता को कहाहे वनदेवता! मेरी पत्नी की सहायता करना। हे वनदेवी माँ! सुनो! यह भीमराजा की सुपुत्री है। विधाता ने इसके शरीर की रचना करके शिल्पी गणों में अपना अग्रणी स्थान बनाया है। निर्दोष होने पर भी इस सती को इसके कठोर पति द्वारा छोड़ा गया है। अब तुम ही इसकी शरण रूप हो। नल की तरह निष्ठुर मत बनना। निद्रा से जगने परमेरे पति कहाँ गये? इस प्रकार विलाप करेगी। आँखों से अश्रुधारा का प्रवाह दशों दिशाओं में प्रवाहमान करेगी। ज्यादा क्या कहूँ? मेरी प्रार्थना के द्वारा तुम इसे किसी भी तरह कुण्डिनपुरी के मार्ग पर आगे बढ़ा देना। इस प्रकार कहकर, कहीं दमयन्ती जाग न जाय-इस प्रकार मन्द मन्द रोते हए, चोर की तरह सावधान होकर चलना प्रारंभ किया। बार-बार गरदन मोड़कर अपनी सोयी हुई पत्नी के दृष्टिगोचर होने तक देखता रहा। फिर मन में विचार किया-हा! हा! अनाथ होकर सोयी हुई इसे इस गहन वन में कोई सिंह या व्याघ्र खा जाय, तो क्या होगा? अतः सूर्योदय होने तक मैं अपनी प्रिया की रक्षा करूँगा। प्रातःकाल होने पर मैं अकेला अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाऊँगा। तभी नल ने पाँव से वस्त्र के लिपट जाने से पतितार्थ की तरह भूमि पर लोटती हुई भैमी को देखकर विचार कियाहाय! एक वस्त्रवाली भैमी एकाकी वन में सो रही है। अहो! नल की पत्नी की असूर्यदर्शिता अद्भुत है। हां! हां! मेरे कर्मों के दोष से यह वनचरी की तरह हुई है। जीते हुए भी मैं मृत के समान हताश हूँ। क्या करूँ? नाथ के होते हुए भी अनाथ की तरह उत्मत्त की तरह मदरहित, भूमि पर सोयी हुई यह नल के प्रलय के लिए क्या दृष्ट नहीं है? प्रबुद्ध प्राणि के साथ स्पर्धा करता हुआ मैं दुरात्मा इसे इस अरण्य में एकाकी छोड़कर जा रहा हूँ। सुख अथवा दुःख में साथ देनेवाली पत्नी की तरह मैं इस पतिव्रता को छलकर धोखा देकर नहीं जाऊँगा अथवा सैकड़ों विपत्तियों से युक्त इस एक ही अरण्य में स्वकर्म फलवाला जीव, मैं अपने संपूर्ण कर्मों का भोग करूँगा। यह भी आँचल में लिखे हुए मेरे आदेश को देखकर अपने स्वजनों के आवास में जाकर देवी की तरह सुख को प्राप्त करेगी। इस प्रकार विचार करके वहाँ रात्रि व्यतीत करके वैदर्भी के जगने का समय होने पर नैषधि छिपकर वहाँ से निकल गया। पूर्व दिशा द्वारा प्रिय के आगमन की खुशी में कुङ्कुम रंग धारण करते हुए प्रभाकर की प्रकाश वेला में भैमी ने स्वप्न देखा-कि मैं प्रफुल्लित होकर फल से भरे हुए आम्रवृक्ष पर चढ़ी। भंगी के गीत की प्रीति के वश होकर मधुर फलों का भक्षण किया। अचानक वनहस्ती के द्वारा आम्रवृक्ष जड़ से उखाड़ दिया गया। तब मैं पके हुए फल की तरह क्षण भर में ही भूमि पर गिर गयी। इस स्वप्न से जागृत होकर भैमी ने अपने सामने नैषधि को नहीं देखा। समूह से भ्रष्ट हाथिनी की तरह दिशाओं को देखती हुई विचार करने लगी-अहो! मेरे देव ने क्रुध होकर मुझ पर अहित किया है। जो कि अलक्ष्मी की तरह मेरे प्राणेश ने मुझे यहाँ छोड़ दिया है। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? कदाचित् सागर अपनी मर्यादा छोड़ दे। कदाचित् चन्द्रमा अपनी चाँदनी को छोड़ दे। तो भी नल मुझे नहीं छोड़ सकते हैं। निश्चय ही मेरे लिए मुख शुद्धि हेतु पानी लाने के लिए ही मेरे प्रेम से प्रेरित होकर कहीं अन्यत्र गये हैं अथवा कोई विद्याधरी कहीं से आकर नल को कामदेव के समान जानकर उसके साथ रमण करने के लिए उसे अन्यत्र ले गयी है। इस प्रकार वह वृक्षों की शाखाओं पर तथा ऊँची ऊँची शिलाओं पर चढ़कर देखने लगी, पर वह एक नयनाभिराम नल कहीं भी 50
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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