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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नल दमयन्ती की कथा पुण्यकाल होगा। इस प्रकार सोचती हुई वह आश्वस्त होकर वहाँ खड़ी हुई, तभी चारों ओर से राक्षसों के समूह की तरह कुत्तों व चोरों द्वारा सार्थ को रोक लिया। यमराज के दूतों की तरह उन चोरों को देखकर उन्हें नष्ट करने में अशक्य सार्थिक स्तम्भित रह गये। ___तब भैमी ने कहा-हे सार्थिकों! मत डरो। उसके वचनों को मन्त्रवत् सुनकर वे सार्थिक स्तम्भन से उन्मुक्त होकर क्षण भर में ही आश्वत हो गये। सती ने चोरों से भी कहा-रे! रे! जाओ! जाओ! यह सार्थ अब मेरे द्वारा रक्षित है। अतः कुछ भी अनर्थ मत करना। उस सती को भूत के समान, भूतलिये के समान, पिशाच के समान मानते हुए वे चौर वैदर्भी के सामने नहीं टिक पाये। दमयन्ती ने धनुष के टंकार की तरह हुंकार भरी, तो कौवों की तरह वे तस्कर दिशा-विदिशाओं में भाग गये। सार्थ के लोग परस्पर बातें करने लगे कि निश्चय ही यह हमारी कुलदेवी है। अन्यथा विकराल चोरों के मुख से यह हमें कैसे खींच लाती? सार्थवाह ने भी भक्तिपर्वक अपनी माता की तरह उसे प्रणाम करके प्रा कौन हो, माते? वन में क्यों घूम रही हो? अपने सहोदर भाई की तरह उस सार्थपति को भैमी ने जन्म से लगाकर अपना सारा वृत्तान्त सुना दिया। सार्थवाह ने कहा-देवी! तुम मेरी पूज्या हो, माता के समान हो। धार्मिक सती रूपी नल पत्नी हो। हमारी चोरों से रक्षा करके तुमने हम पर उपकार किया है। अतः हम पवित्र आवास प्रदानरूपी धर्म के द्वारा अपने पापों को हल्का करेंगे। इस प्रकार कहकर उस नल-वल्लभा को अपने आवास में ले जाकर सार्थपति देवता की तरह उसकी पूजा करने लगा। इसी बीच उत्तम जाति के हाथी की तरह गर्जना करते हुए बादल भीमसुता को पूजाक्षण में ध्वनित वाद्य की आवाज का स्मरण कराने लगे। पृथ्वी व आकाश के इन्द्र का रोधन करने वाले काले-काले बादल सर्वत्र छा गये। भैमी को लगा कि जिनेन्द्र की पूजा में धूप से उठता हुआ धूम सर्वत्र छा गया है। अम्बर में बिजली के ताण्डव को देख देखकर देवी पूरी रात अर्हन्त प्रभु के ध्यान में विचरण करती रही। वृष्टि जल के द्वारा भूमि को रजरहित देखकर भैमी अरिहन्त की अर्चना में अपने चित्त के समान संवेग रस से पूर्ण हो गयी। तीन रात्रि तक वृष्टि की धारा अखण्ड रूप से बहती रही। वह देवी भी धर्मस्थान में स्थित की तरह शुभध्यान में अवस्थित हो गयी। बरस बरसकर थके हुए बादल ठहर गये। भीमसुता ने सार्थ को छोड़कर पुनः अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। प्राणधारण करने के लिए वह निरवद्य फलों का आहार करने लगी। उपवास आदि तप में लीन रहते हुए पति-वियोग के दिन व्यतीत करने लगी। जलते हुए दावानल से युक्त पर्वत की तरह, बिखरे हुए बालों वाले विकराल तलवार को हाथ में लेकर, बादलों में चमकती हुई विद्युत की तरह, मुखरन्ध्र से निकली हुई द्विजिह्वा के समान जिह्वावाले, भयानक रस के साक्षात् रूप को धारण करनेवाले अतिशय भैरव, अंधकार के समान काले, बाघ के चर्म को ओढ़े हुए, प्रेतों के अधिपति के समान राक्षस को देवी ने देखा। राक्षस ने भी उसे देखकर कहा-हे शुभे! मैं तुम्हारा भक्षण करूँगा। क्षुधा से अशक्त पेटवाला मैं सात दिनों का भूखा हूँ। सुनने में दुःखदायी उसके वचनों को सुनकर तथा कठिनाई से देखने योग्य उसे देखकर डरती हुई भी नल-वल्लभा धैर्य का आलम्बन लेकर बोली-जन्म लेते ही मृत्यु निश्चित हो जाती है अर्थात् जो जन्मा है, उसे एक न एक दिन मरना ही पड़ता है। जो अकृतार्थ होता है, उसे ही मृत्यु का भय होता है। जन्म से ही मैं परमाहती होने से कृतार्थ हूँ। अतः मुझे मृत्यु से कोई भय नहीं है। मैं तो वैसे भी दुःखों से छूटकारा पाने के लिए दुखार्त्त होकर मृत्यु की प्रार्थना कर रही थी। नल के वियोग रूपी अग्नि से दग्ध अंगवाली मुझे खाकर तुम सुख प्राप्त करोगे। अतः देर मत करो। शीघ्र ही मुझे खा लो। मेरे द्वारा यह शरीर तुम्हें अर्पित है। क्योंकि मरे बिना दुःखों से जलांजलि नहीं हो सकती। लेकिन किसी भी पर नर ने मुझे कभी भी हाथों से स्पर्श नहीं 52
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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