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________________ ॥ २३२ ॥ परिवतो इमे थाने. ॥ ६४ ॥ ( टीका ) - एवमादि शिलामंरुपसंपादनप्रभृति रोहकात्सकाशादिदं पूर्वोक्तं कार्य संपन्नमित्येवं ज्ञात्वा आज्ञापयत्यादिशति राजा जितशत्रुः कथमित्याह. - तु मम समीपे स रोदकः शीघ्रम विलंबमेव परं परिवर्जयन् परिहरन्निमानि स्थानानि एतानर्था नित्यर्थः ॥ १३ ॥ " तान्येवाद.—पक्खडुगं दिणराई — बाउण्डे बत्ताद पहुम्मग्गे, जाणचलणे य तह हामलगो सदा ग. ॥ ६५ ॥ (टीका ) - पाकिं शुक्लकृष्णपक्षघ्यलक्षणं, दिनरात्री प्रतीतरूपे, बायोष्णौ बायामात पानावरूपामुष्णं च चंमकर किरणलक्षणं, उत्रननसी बनमातपवारणं नवगेरे सघळां कामो हाथी थया जाए। राजाए फरमाव्यं के रोहाए नीचे प्रमाणे स्थानोनो परिहार क रीने इहां जलदी व. ६४ ए टीका. - ए वगेरे एटले के शिक्षामंरुप बनाववा वगेरे ए पूर्वे कलां कामो रोहा मारफत थया के एम जाणीशत्रु राजा फरमाव्यं के ते शहाए मारा पासे वगर विसंबे यावं, पण आ स्थानो एटले वातोने परि हरतां वj. १३ ते बाबत बतावेळे - बे पक्क, दिनरात, छाया तमको, नत्र आकाश, मार्ग उन्मार्ग, यान चलन, तथा स्नान मबिन, एटलायी अन्यथा यइने आव. ६५ टीका - पटले सुदिवदि, दिनरात छाया एटले तमकानो अभाव ने उष्ण एटले सूर्यना किरण, छ श्री उपदेशपद.
SR No.022167
Book TitleUpdeshpad Part 01
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherLalan Niketan Madhada
Publication Year1925
Total Pages420
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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