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________________ न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय - श्रीमद् यशोविजयजी गरिणवर्य द्वारा संगृहीत १०८ बोल संग्रह [ सूचना-प्रस्तुत संग्रह की पाण्डुलिपि का पहला पृष्ठ खो जाने अथवा नष्ट हो जाने के कारण क्रमांक १ से ४ तक के प्रश्न नहीं दिये गये हैं । यही कारण है कि इस ग्रन्थ का आरम्भ ५ वें बोल से हो रहा है । ] (५) यथाछं दन उत्सूत्र बोल्यानो निर्धार नथी एहवं लिख्यूँ छइं ते न मिलई, जे माटई - आवश्यकव्यवहार भाष्यादिक ग्रंथमां यथाछंद उत्सूत्रचारी नई उत्सूत्रभाषीज कहिओ छइं नियत उत्सूत्रथी अनियत उत्सूत्र हलुउं ज हुई एहवं कहई छई ते न घटइं, जे माटइं एक जातिनई पापई हिंसादिक आश्रवनी परि नियतानियत भदेहं फेर कहिओ नथी ॥ ५ ॥ ( ६ ) कीधां पापनुं प्रायश्चित्त तेहज भवई आवई पणि भवांतरि नाव, एवं लिख्यं छइं ते न घटई, जे माटई -- पंचसूत्र चतु:शरणादि ग्रथनई अनुसारइं भवांतरनां पापनुं पणि प्रायश्चित्त जणाई छई ॥ ६ ॥ बो० सं० १
SR No.022149
Book TitlePanchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Yashodevsuri
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1980
Total Pages140
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size7 MB
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