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________________ क्रोध मान मद माया मच्छर ईर्ष्या लोभ विषाद, विषयकाकु व्याकुलता संभ्रम हृदय ग्रन्थि उन्माद. इत्यादिक दोषइ जे दूषित सुर सुख पणि स्थइ लेखाइ, मोहई मुझ्या ते सुख देखइ समकित दृष्टी ऊवेखइ. वस्तुगत सुख-दुख दोइ सरिखां कीधां कर्म उपाधि, गतिमां साहिब मई जाण्यां आण्यां चित्त समाधि; उत्क्रमि गुण कितना लहिइ लागो उपशम प्यारो, देव दयापर ते हवइ दीजइ 'सुजस' हृदय आधारो. १०३ १३ १४ ढाल-५ साहिब सुणि रे सेवक वीनती तुं मुझ हृदय आधार, घरम सामग्री से तुझथी पामिइ ताहरा बहु उपगार. ब्रह्मदत्तनई रे वेशइं द्विजतणो वारो नावइ रे अन्य, तिम नर भवसइ हार्यो न वि लहइ बीजो वार अपुन्य. सा० २ पासा दिव्य चाणक्य इं पामिया तिणि हरवइ सवि लोक, दायन आवइ तिहां अन्य तो तिम हार्यो भव फोक. पाथो तिलनो रे खंड छ धानमां नांखी डोसी रे जेम, फिरि नवि काढइ रे पाथो तेहवो हार्यो नरभव तेम. द्यूतई हार्या रेजिम जीपइ नही नरभव हार्यो रे तेम, रतन जे आप्यां रे कृपणसुतइं जगि फिरि ते लहवां रे जेम. सा०५. सा० ३ सा० १ सा० ४
SR No.022149
Book TitlePanchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Yashodevsuri
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1980
Total Pages140
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size7 MB
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