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________________ (८१) विवेचन - मारगस ज्यारे भूख अने तरस थी पीड़ातो होय त्यारेज तेने खावा अने पीवा नी इच्छा थाय छे. परन्तु पूर्ण पेट भरायेल होय त्यारे भूख अने तरस थी मूकायेल मारणस ने खावानी इच्छा थती नथी. तेमज संसारी जीव ने क्षुधा वेदनीय अने पिपासा वेदनीय ना उदयेज भूख अने तरस लागे छे, परन्तु सिद्ध भगवंतो ने वेदनीय कर्म नो नाश थयेल होवाथी तेमने कोई प्रकार नी इच्छा थती नथी. माटे सदा काल तेरो तृप्तज होय छे. संतोषी अने इन्द्रिय जीतनार एवा योगी पुरूष ने कई पण ग्रहण करवानी इच्छा थती नथी. तेवीज़ रीते सिद्ध परमात्मानो ने पण ग्रहण करवोनी इच्छा थती नथी. पूर्ण पात्र मां जेम कई पण अधिक वस्तु समाई शकती नथी तेम ज्ञान रूप अमृत अने आनंद रूप अमृत थी सिद्ध भगवंतो पूर्ण भरेला छे. एवा कारणो थी सिद्ध परमात्मानो कर्म ग्रहण करता नथी. मूलम्तथा च सिद्धेषु सुखं यदस्ति, तद् वेद्य कर्म क्षयजं वदन्ति । तत्कर्म हेतुर्न हि सिद्धसौख्ये, यत्कर्म सान्तं सुखमेधनन्तम् ८ गाथार्थ-सिद्ध भगवंतो ने जे सुख छे ते वेदनीय कर्म ना नाश थी थयेलुछे, तेथी सिद्ध भगवंतो ना सुख मां कर्म
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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