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________________ (८०) होवा थी कर्म ग्रहण करे छे परन्तु सिद्ध भगवंतो क्रिया रहित होवा थी कर्म ग्रहण करता नथी. (५) कर्मो थी प्राप्त थतु सुख अंत वालूछे, ज्यारे सिद्ध भगवंतो नु सुख अनंत छे. तो अनंत सुख प्राप्त थया बाद अंत वाला सुख माटे कोण प्रयत्न करे ? माटे सिद्ध भगवंतो कर्म ग्रहण करता नथी. वली सिद्ध भगवंत ना सुख मां कर्म कारण भूत बनी शकतु नथी. विगेरे कारणो थी सिद्ध भगवंतो कर्म ग्रहण करता नथी. मूलम्लोके यथा क्षुत्त षया विमुक्तात्मानः सुतृप्तस्यन तृप्तिकालं । जितेन्द्रियस्याप्यथयोगिनोऽपि.तुष्टस्यकिचिद्ग्रहणोनवाञ्छा ६ यद्वान पात्रेपग्मिातिकिचित्, पूर्ण तथासिद्धगताहिसिद्धाः । सदा चिदानंदसुधा प्रपूर्णा, ग्रह्णन्ति नो किंचिदपोह कर्म ७ गाथार्थ- जेवी रीते लोक मां भूख अने तरस थी विमुक्त थयेल अने सारी रीते तृप्त थयेल अात्मा ने तृप्तिकाल नी मर्यादा होती नथी. संतोष पामेल अने इन्द्रिय ने जीतनार योगी पुरुष ने कई पण ग्रहण करवानी इच्छा होती नथी. अथवा पूर्ण भरायेल पात्र मां कई पण समाई शकतु नशी. तेवीज रीते हमेशा ज्ञान रूप अमृत अने आनंद अमृत बड़े परिपूर्ण एवा सिद्ध भगवंतो कोई पण कर्म ग्रहण करता नथी.
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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