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________________ ( ३८५) मूलम्मयाजिनाधीशवचस्सु तन्वता,श्रद्धानमेवंयउपाजिसज्जनाः!। धर्मस्तदेतेन निरस्तकर्मा,निर्मातशर्माऽस्तुजनःसमस्तः ॥१२॥ गाथार्थ:-हे सज्जनो ! जिनेश्वर देव ना वचनो ने विषे श्रद्धा ने विस्तारता एवा में जे कई पुण्य-धर्म उपार्जन कयु होय ते बड़े समस्त लोक कर्म रहित अने सुखी थानो.. विवेचन:-में आ ग्रंथ एटला माटे बनाव्यो छे के ते ग्रंथ भरणतां अने सांभलतां लोको जिनेश्वर देव ना वचन प्रत्ये श्रद्धा वाला बने. आ मारी भावना होवाथी जिनेश्वर देवो ना वचनो मां श्रद्धा विस्तारवा पा ग्रंथ में बनाव्यो छे. प्रा ग्रंथ द्वारा जिनेश्वर देवो ना वचनो मां श्रद्धा विस्तारता जे कई पुण्य अथवा धर्म उपार्जन कर्यो होय तेनुं फल मारे जोइतुं नथी परन्तु तेना द्वारा बधा जीवो कर्म रहित अने सुखी थानो. वरतरखरतरगरणधरयुगवर-जिनराजसूरिसाम्राज्ये । तत्पट्टाचार्यश्रीजिन-सागरसूरिषु महत्सु ॥१३॥ अमरसरसि वरनगरे, श्री शीतलनाथलब्धिसान्निध्यात् । ग्रन्थोऽग्रन्थि समर्थः, सुविदेऽयं सूरचन्द्र ग ॥१४॥
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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