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( ३७२) विवेचना-प्रात्मा थी भिन्न शरीरादि वस्तु मां मारा पणुं, ममत्व जो दूर थाय तो आ आत्मा भ्रम रहित थाय छे, अने भ्रम रहित थये छते आ आत्मा परमात्मा जेवो थाय छ अर्थात् परमात्मा अने आ आत्मा मां भेद रहेतो नथी. मूलम्: - यदानयो:क्षत एकभावं, योगी तदात्मावगमी निगद्यते । सकेवलज्ञानमयोमुनीश्वरः, कर्मक्रियाभ्रान्तिविमुक्तउक्तः ।३२ गाथार्थः-ज्यारे योगी बन्ने नो एक भाव जुए छे त्यारे ते आत्मज्ञानी कहेवाय छे. त्यारेज ते केवल ज्ञान युक्त अने कर्म, क्रिया अने भ्रान्ति रहित कहेवाय छे. विवेचन:-ज्यारे योगी एटले योग नो अभ्यास करनार आत्मा अने परमात्मा मां एकत्व भाव जुए छे त्यारे ते आत्म ज्ञानी कहेवाय छे. ज्यारे आत्मज्ञानी थाय त्यारेज केवलज्ञान पामे छे अने कर्म, क्रिया अने भ्रान्ति रहित थाय छे.
यदा त्वयं मुक्त इति प्रसिद्ध-स्तदा हि सर्वत्र ममत्वमुक्तः । धनं हि कि सैष मनःशरीर-सुखासुखज्ञानविमर्शशून्यः ॥३३॥