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________________ ( २८२ ) नाथार्थ:-- जोके श्रा संसार मां एमना पूर्ण प्रने समस्त गुणो ने सेववा माठे आ साधुप्रो शक्तिमान नथी, तो पण पोताना योग्य बल ने श्राश्रयी ने सिद्ध ना गुणो ने भजे छे. विवेचन :- सिद्ध भगवंतो मां अनंत गुणो रहेला छे अने मां अनंत शक्ति छे. एटले तेमना समस्त गुणो सेववानी अल्प बल वाला मुनि - महात्माओ नी शक्ति नथी, तो पण तेमना समस्त गुणो पामवा माठे अर्थात् सिद्ध जेवा थवा माटे सिद्ध ना गुणो ने पोताना बल मुजब सेवे छे. मूलम् - तथाहि सिद्धाः परिभान्त्यमूर्त्ता, अमी तथा देहममत्वमुक्ताः । रूपरस्ते तदिमे शरीर-संस्कारसत्कारनिकारकाराः । ११ मुक्ताशनास्तेऽत इमे क्वचित्क्वचि - दाहार वर्जाः पुनरेवतेतु । विद्वेषमुक्ता इति सर्वसत्त्व - मंत्री वहा एत इतीव रुच्याः । १२ ते वीतरागा इति बन्धुबन्ध-च्युता इमे ते तु निरञ्जनाख्याः । इमे ततः प्रीतिविलेपनाद्य, शून्याश्चते निष्क्रियकास्ततोऽमी |१३ प्रारम्भसंरम्भ विलम्भरिक्ता, गतस्पृहास्तेऽत इमे निराशाः । स्पर्धकास्ते तदमी परंस्तु, वादविवादरहितास्तथा च । १४ निबंन्धनास्तेऽथस देवकलृप्त--स्वेच्छाविहारास्तदिमेऽथ तेऽपि । निः सन्धयोऽमीतु परस्परोत्थ- सख्याद्विरक्ताश्रथ के वलेक्षाः । १५ ते सन्त्यमी सर्वजगत्स्वभावा - नित्यत्वदर्शाः पुनरेव ते तु । प्रानन्दपूर्णास्तदिमेसदान्तराः, सन्तोषपोवात्समभावभाविनः ।
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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