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________________ ( २२६ ) एवं चतुर्भङ्गिकया स्वकर्म, भोग्यं भवेदाप्तवचः प्रमारणात् । । कर्मस्वरूपंप्रतिवेदितुनो, क्षमविनाकेवलिनोयथार्थम् ।५० गाथार्थ:-ए रीतिए प्राप्त परुष ना वचन ना प्रमाण थी चार प्रकार ना भेद बड़े पोतानुं कर्म भोगववा योग्य थाय छे. केवली भगवंत विना यथार्थ रीते कर्म न स्वरूप जणाववाने कोई बीजो समर्थ नथी. विवेचन:- कोई पण प्रकार हैं शुभाशुभ कर्म ऊपर बतावेल चार प्रकार ना भेद थी भोगववा योग्य थाय छे, अर्थात् भोगवाय छे. हमेशां प्राप्त पुरुषो ना वचन थोज ते वस्तु प्रमाण भूत थाय छे. प्राप्त पुरुषो तरीके केवली ज्ञानी भगवंतोज जैन शासन मां गणेल छे. ते केवली भगवंतो नुं वचन एटला माटे ज प्रमाण गणाय छे के तेश्रो वीतराग होवा थी असत्य बोलवान तेमने कोइज कारण नथी, वली तेश्रो सर्वज्ञ होवाथी वस्तु स्वरूप ने यथार्थ रीते जाणी शके छे माटेज का छे के कर्म ना वास्तविक स्वरूप ने यथार्थ रीते केवली भगवंतो सिवाय जरणाववा ने कोई समर्थ नथी. ईदृग्विधंकर्मकियद्विधंस्या---रित्रधेतितत्किंशणुभण्यमानम् । भुक्तंचभोग्यपरिभुज्यमानं, शुभाशुभंसर्वमिदंसहनम् ॥५१
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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