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________________ ( २०२) कर्ता, यमराज अथवा भगवान कर्म ना समूह नो प्रेरक छ माटे जगत सुख-दुःख भोगवे छे. विवेचनः कर्म ना प्रेरक तरीके विधाता आदि ने माननार कहे छे के जीवने स्वयं दुःख भोगववानी इच्छा होतो नथी. छतां अशुभ कर्म ना योगे जोव ने दुःख भोगववं पड़े छे. माटे कर्म नो प्रेरक होवो जोइये अने तेथी प्रेरक तरीके विधाता, नव ग्रहो, परमेश्वर, जगत कर्ता ब्रह्मा, यमराज अथवा भगवान एमांनो कोई कर्मनो प्रेरक होवो जोइये. मूलम् - नवं यदेतानि भवन्ति कर्म-नामानि शास्त्रे पठितानि तद्यथा । भाग्यं स्वभावो भगवानदृष्टं, कालो यमो देवतदेवदिष्टम् ।३। अहो ! विधानंपरमेश्वरःक्रिया, पुराकृतंकर्मविद्याविधिश्च । लोकःकृतान्तोनियतिश्चकर्ता,प्राक्कीर्णप्राचीन विधातलेखाः।४। इत्यादिनामानिपुराकृतस्य, शास्त्र प्रणीतानितु कर्मतत्त्वगैः । तदात्मनोनस्वकर्मणोविना, सुखस्यदुःखस्यचकारकोपरः ।। गाथार्थः तमारु आ कथन बराबर नथी. जे कारण थी शास्त्र मां कर्म नां नामो कहेलां छे, ते आ प्रमाणे भाग्य, स्वभाव, भगवान्, अदृष्ट, काल, यमदैवत, देव, दिष्ट, विधान, परमेश्वर, क्रिया, पुराकृत, विधा, विधि, लोक, कृतान्त, नियति, कर्ता, प्राक्कीर्ण लेख, विधाता लेख
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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