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________________ ( १९६ ) ॥ अथ एकादशोधिकार: ॥ निगोदथी पूर्ण व्याप्त समग्र विश्वमा बीजा द्रव्योनो समावेश अने आकाश नं अवस्थान मूलम्:स्वामिन्निदं विश्वमशेषमित्थं पूर्ण निगोदर्यदि तहि तत्र । कर्माण्यथोपुद्गलराशयोऽपि,धर्मास्तिकायादिकथंहिमान्ति ॥१॥ गाथार्थः- हे स्वामी ! पा समग्र विश्व निगोदो वड़े पूर्ण भरायेल होय तो ते विश्व मां कर्मो, पुद्गल राशियो अने धर्मास्ति कायादि केवी रीते समाय ? विवेचनः-एक वासण जो कोई पण वस्तु थी पूर्ण भरायेल होय तो तेमां बीजी एक पण वस्तु नो समावेश थई शकतो नथी. तो आ समग्र विश्व जो निगोदो थी पूर्ण भरायेल होय तो तेमां कर्मनी वर्गणाओ, पुद्गल नी राशियो, धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय विगेरे पदार्थो नो ते विश्व मां केवी रीते समावेश थई शके ? मूलम् : सत्यं यथा गान्धिकहट्टमध्ये, कर्पूरगन्धः प्रसृतोऽस्ति तत्र । कस्तूरिकाजातिफलादिसर्व-वस्तूत्थगन्धोननुमातिकिन ॥२॥
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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