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विवेचन:- वैष्णवो नुएवु कथन छे के जे जीवो ईश्वर नु ध्यान करता नथी ते जीवो ईश्वर ना अपराधी होवाथी तेमने ईश्वर दुःख प्रापे छे. अने जे जीवो ईश्वर नु ध्यान, सेवादि करे छे तेमने ईश्वर सुख प्रापनार थाय छे. मूलम्ःद्वषो चरागी भवतां सकर्ता, यईदृशीमाचरति प्रतिक्रियाम् । नामैवमस्स्वस्तुपरं यएनं, निन्देन्न वन्देत गतिस्तु कास्य ।४५॥ गाथार्थ :- आवा प्रकार नी प्रति क्रिया करवाथी ईश्वर रागी अने द्वषी थशे. भले तेम हो, परन्तु ईश्वर नी निन्दा पण न करे अने वन्दन पण न करे तेनी कई गति ? विवेचन :-जो ईश्वर पोतानु ध्यान करनार ने सुख प्रापे छे अने न करनार ने दुःख आपे छे. एवा प्रकार नो ईश्वर तो रागी अने द्वषी गणाय. तमारा कहेवा मुजब भले ईश्वर रागी अने द्वषी गणाय, एम मानिये तो पण एक बीजो वांधो ए आवशे के ईश्वर नी भक्ति करनार सुखी थशे. अने भक्ति न करनार दुःखी थशे. परन्तु जेनो ईश्वर नी भक्ति करता नथी, नमस्कार करता नथी अने तेनी निन्दा. पण करता नथी तेमनी कई गति थशे ? मूलम्लोके त्रिधा स्याद्गतिरेकवस्तुनो.:: :
यत्सेवकासेवकमध्यमात्मिकाः ।