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________________ ( १४० ) समर्थ नथी. तमो कहेशो के एकली माया कई परण करवाने समर्थ नथी परन्तु कर्त्ता नी शक्ति थी माया कई पण करवाने समर्थ थाय छे. तो ते वात परण बराबर घटती नथी, कारण के जो कर्त्ता नी शक्ति थी माया कई पण करी शकती होय तो सुख - दुःख नो कर्ता माया नथी परन्तु विष्णु थाय. जो विष्णु जगत ना जीवो प्रत्ये माया ने सुख-दुःख आपवा नी प्रेरणा करनार छे एम मानिये तो परण वांधो आवे छे, कारण के जो विष्णु जगत ना जीवो प्रति माया ने सुख-दुःख आपवानी प्रेरणा करे तो जगत ना जीवोए विष्णु नो शो अपराध कर्यो छे के तेमना प्रति दुःख आपवानी विष्णु माया ने प्रेरणा करे छे. अने जो निरपराधी जीव प्रति पर दुःख आपवानी विष्णु माया ने प्रेरणा करे तो परण जगत नो कर्त्ता विष्णु ईश्वर तरीके केम कहेंवाय ? मूलम् : ध्यायन्तियेनेशमिमेऽस्य सागसा - स्तेषामसौदुःखकरः प्रथेत्यहो । ये त्वीशमेनं प्रति सेवमाना, स्तेषामयं सातततिविधत्ते ।४४ | गाथार्थ :- जे प्रो ईश्वर नुं ध्यान करता नथी तेश्रो अपराधी छे. तेमने प्रा ईश्वर दुःख देनार होय छे अने जे ईश्वर नी सेवा करनार होय छे तेमने ईश्वर सुख प्रापनार होय छे.
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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