SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १०५ ) नीकले छे. ए बधी नदीओ लवण समुद्र मां जाय छे. ए नदियोना प्रवाहो अति शीघ्र अने सतत वहे जाय छे. छतांपद्मद्रह विगेरे द्रहो कदापि खालो थता नथी, अने लवण समुद्र कोई दिवस पण पूरातो नथी. तेवीज रीते संसार मांथी निकली अनादि कालथी अनंतानंत भव्य आत्माओ मोक्ष मां निरन्तर जाय छे. छतां संसार भव्य आत्माअोथी खाली थतो नथी अने मुक्ति नु स्थान भव्य आत्मानो थी पूर्ण भराई जतु नथी. मूलम्दृष्टांतदार्टान्तिकयोरितीदं, साम्यं समालोचयतां नराणां । भवेत्प्रतीतिः परमाहताना-महद्वचस्येव न चापरत्र ॥७॥ गाथार्थः- दृष्टांत अने हार्टान्तिकतु सरखापणु जो विचारवामां आवे तो परम श्रावको ने अर्हद्वचन प्रत्ये श्रद्धा पैदा थायज, परन्तु मिथ्यात्वी आत्माअोने नज थाय. विवेचन:- कोई पण गहन विषय ज्यारे न समझाय त्यारे दृष्टांत द्वारा सुन्दर रीते समझाय छे माटे दृष्टांत आपवामां आवे छे तेम अहियां पण संसार खाली केम न थाय अने मुक्ति केम न पूराय, ए समझाववा माटे सुन्दर दृष्टांत आपवामां आव्यु छे. लवण समुद्र ने मुक्ति ना स्थाननी, संसार ने नदीना द्रहो नी अने सतत मुक्ति जता भव्य
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy