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१५२ . उपदेशतरंगिणी. ___न शुष्कैः पूजयेद्देवं, कुसुमैन महीगतैः॥
न विशीर्णदलैस्तुबै- शुन्नै विकाशिन्निः ॥१॥ अर्थ- सूकां, पृथ्वीपर पमेलां, तुटेली पांखडी वालां, तुन अशुल, तथा नहीं प्रफुल्लित श्रएलां एवां पुष्पोथी देवपूजा करवी नहीं. . पुष्पद्यर्चा तदाज्ञा च, तद् व्यपरिरक्षणम् ॥
उत्सवस्तीर्थयात्रा च, जक्तिः पंचविधा जिने ॥१॥
अर्थ- जिनेश्वर प्रजुनी पुष्पादिकोथी पूजा, तेमनी आज्ञा, तेमना व्यर्नु रक्षण, तेमनो उत्सव, तथा तेमना तीर्थनी यात्रा एवी रीते पांच प्रकारे जिनन्नक्ति थाय . __ चंपक, मालती, कमल, मोगरो, तथा गुलाब आदिक उत्तम पुष्पो, तथा श्रादि शब्दथी मोतीउँना हार, सुवर्णना बत्र, मु. कुट, कुंडल आदिक पण जिनपूजा माटे जाणी लेवां. तेमां पण आजूषणनी पूजा शाश्वती जे. कडुं ने के, - म्लायति पुष्पनिचयाः महरार्धकेन,
वैगंध्यमेति दिवसेन कृतोउंगरागः॥ जीर्यति रम्यवसनान्यपि नरिवर्डं,
नों जीर्यते युगशतैर्जिनरत्नपूजा ॥१॥ अर्थ- पुष्पोना समूहो अरधा पोहोरमां श्लानि पामे , विलेपन एक दिवसमां निर्गध थाय ने, मनोहर वस्त्रो घणे वर्षे जीर्ण थाय , पण रत्नादिकोना आजूषणोथी करेली पूजा सेंकडो गमे युगोमां पण जीर्ण थती नथी.
ज्यारे वस्तुपाल मंत्री सात लाख मनुष्यो सहित गिरनारपर यात्रा करवा गया हता, त्यारे तेमनी स्त्री अनुपमा देवीए बत्री