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उपदेशतरंगिणी. मृत्स्नायां कनकं सुमे परिमलः पंके पयोजं यथा संसारे पुरुषायुषं निगदितं सारं तथा कोविदैः ॥२॥
गत्याऽघहत्या श्रुतसंयमाभ्यां,
सद्दानसध्यानतपःक्रियानिः॥ अर्हत्पदज्ञानशिवर्धिन्निश्च,
मानुष्यकं जन्म वरं सुरेभ्यः ॥३॥ वली ते पुरुषोनुं आजूषण लक्ष्मीज . पण रूप अने कलादिक गुणो आजूषणरूप नथी. कहुं ने के,
जाश्रुवं विजातिनि, विनिवडंतु कंदरे विवरे॥ अछुच्चिय परिवहन, जेण गुणा पायमा कुँति ॥१॥ वली लक्ष्मीवान माणस अकुलिन होय तोपण उत्तम कुलनो, बन्ने कुलथी शुच, एकसो एक कुलोनो उद्योत करनारो, बन्ने पक्थी निर्मल राजहंसना अवतार सरखो गणाय ; वली ते कलाविनानो होय तोपण समीथी बहोंतेर कलानो जाण कहेवाय बे; वली त्रीज के तेरस आदिकना जेदन जेने जान पण नथी, एवो पण पुरुष जो अव्यवालो होय तो चउद विद्यानो पारंगामी तथा बृहस्पति सरखो दुनियामां कहेवाय जे कुरूप- ' वालो होय तोपण उत्तम रूपवालो कामदेव सरखो, कालो होय तो कृष्णावतारवालो, गणो होय तो वामन वासुदेवना अवतारवालो, चंचो होय तो धुंटणसुधि लांबा हाथवालो, लांबा कानोवालो होय तो चंपाना गेड जेवो, थामुं बोलनारो होय तो मुखकमलमांधी कर्पूरनी चूरणने खरवावालो, बहुबोलो होय तो वाचाल चाणाक्य सरखो चकोर, थोड़ें खातो होय तो देवांशी तथा पोपटनी पेठे आहार करनारो, घणुं खातो होय तो पूर्व नवे संपूर्ण दान देने आवेखो अने तेथी पोतानी श्वा प्र