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________________ ११० . उपदेशतरंगिणी. दत्तं तैरिह सर्वसौख्यजननं सद्ज्ञानदानं नृणा श्रीसर्वचरित्रपुस्तकमहो ये लेखयंत्यादराता। अर्थ- जे माणसो आदरपूर्वक श्री सर्वज्ञ प्रजुर्जना चरित्ररूप पुस्तकने लखावे , तेजेए पोतानो आत्मा पवित्र करेलो ने, तेए पोतानो जन्म निर्मल करेलो ने, तेजेए संसाररूपी मोटा अंधारा कुवामां पढ़ता प्राणीउने हाथथी टेको आपेलो , अने तेए आ जगतमां सर्व सुख उत्पन्न करनारुं उत्तम ज्ञान- दान लोकोने आपेलु . ये तीर्थनाथागमपुस्तकानि, न्यायार्जिताथैरिह लेखयंति ते तत्वतो मुक्तिपुरोनिवास-. स्वीकारपत्रं किल लेखयंति ॥१॥ अर्थ- जे माणसो आ जगतमां पोतानां न्यायोपार्जित - व्यथी जिनेश्वर प्रजुना आगमोनां पुस्तको लखावे , ते तत्वथी ( जोश्य ) तो खरेखर मुक्ति पुरीना निवासनां स्वीकारपत्रो लखावे . _वली शान लणनार माणस हिंसादिकनो पण त्याग करे , अने तेथी तेने सुगति मले . कडं ने के न शुकः क्वापि मांसाशी, चत्वरे रामपाठतः यस्याभ्यासः श्रुतांऽशेपि, तस्य हिंसामति कुतः १ अर्थ- चौटावच्चे रामनो पाठ करनारो होवाथी पोपट को पण जगोए मांसनदी होतो नथी, केमके, ज्ञानना अंशनो पण जेने अन्यास होय , तेने हिंसाबुधि क्याथी होय? अहीं ज्ञानश्री केवा केवा फायदा श्राय ? तेपर चिलाती
SR No.022144
Book TitleUpdesh Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnamandir Gani, Shravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek Samiti
Publication Year
Total Pages208
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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