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________________ ताबे थइ धर्मधन हारी जवामां आवशे तो बीजा विद्याधरनी पेठे दुःखी य, पडशे. सत्ववत प्राणी प्रथम विद्याधरनी पेठे पोतानुं दृष्टि बिंदु हजारो जाळोनी वच्चे होय तो पण चूकता नथी, अने जे प्राणी तेवी रीते वर्तन करे छे ते थोडा वखतमा तेना उत्तम फळ प्राप्त करे छे. ॥ दृष्टांत अगीयारमुं - निर्भागीजें ॥ अनेक देवोनी सेवना कर्या पछी एक भिक्षुक जीवने चिंतामाणि रत्न प्राप्त थयु. चिंतामणि रत्ननो प्रभाव एवो छ के ते जेनी पासे होय ते तेनुं आराधन करे तो पछी इच्छित वस्तु तेने मळे. अन्यदा ते पुरुष समुद्रमार्गे पोताने देश जतो हतो. एक रात्रिए चंद्रनी कांति साथे चिंतामणि रत्ननी कांति सरखावी तेने उडाडवा लाग्यो. एवामां हाथ सर्यो, रत्न पडयु, समुद्रमा गयु अने पोत हतो तेवो दरिद्री थइ गयो. (उपनय) मनुष्यभव चिंतामणि रत्न समान छे. बहु प्रयासयी मळे तेवू जैनधर्मरूप चिंतामणि रत्न प्राप्त करी प्रमादेने वश थइ ते खोइ बेसवामां आवे तो पछी भविष्यमा बहु पस्तावानुं कारण रहे छे; माटे रत्न प्राप्त थाव त्यारे तेनी खरी किंमत समजी तेने जाळवी राखq. शास्त्रकारो स्वपर उपकारनी बुद्धिथी आंवा अनेक दृष्टांतो बतावी गया छे. सर्वनो सार ए छे के विषयने वश न थq. मनपर अंकुक्ष राखवो, पातानी जबाबदारी समजवी, मनुष्यभवनी अने देव गुरू धर्मनी जोगवाइनी प्राप्तिनी दुर्लभता समजवी अने लालचमा लपटा, नहि. साक्षर अने निरक्षरने बोधदायक होवाथी आ दृष्टांतोपर बनी शके तेटलुं विवेचन करवामां आव्यु छे. माया निग्रह करवानो उपदेश. (उपजाति छंद) अधीत्यनुष्ठानतपः शमाद्यान, धर्मान् विचित्रान् विदधत्समायान् ॥ न लप्स्यसे तत्फलमात्मदेह -क्लेशाधिकं तांश्च भवान्तरेषु ॥६॥ अर्थ:- शास्त्राभ्यास, धर्मानुष्ठान, तपस्या, शम विगैरे विगैरे अनेक धर्मो अथवा धर्मकार्यों माया साथे आचरे छे, तेथी तारा
SR No.022143
Book TitleUpdesh Ratnamala Tatha Prakirna Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmajineshwarsuri, Munisundarsuri, Manilal Nathubhai Doshi
PublisherSuriramchandra Diksha Shatabdi Samiti
Publication Year1935
Total Pages80
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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