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________________ शक्यानुष्ठानारंभ पर इसलोक के हेतु अथवा परलोक के हेतु अथवा कीर्ति प्रशंसा वा यश के हेतु आचार नहीं पालना । बल्कि माईतिक (अरिहंत के कहे हुए अथवा योग्य) हेतुओं ही से आचार पालना चाहिये। आर्य महागिरि का चरित्र अर्थात वृत्तान्त स्मरण करता हुआ भाव साधु सक्रिया करे, इस प्रकार गाथा का अक्षरार्थ है। भावार्थ तो कथानक पर से जानना चाहिये। __ आर्यमहागिरि का चरित्र इस प्रकार है। बीर प्रभु के शिष्य सुधर्मास्वामी हुए । जो कि-ज्ञेय पदार्थरूप समुद्र के पारगामी थे। उनके शिष्य जम्बूसूरि हुए । जो कि-श्रमण जनरूप पक्षियों को जामुन के वृक्ष समान आधारभूत थे। उनके शिष्य प्रभवसूरि हुए | वे गुगमणि की खानि थे। उनके शिष्य शय्यंभव थे। जो कि-संसारसमुद्र में प्रवहण समान थे। उनके पश्चात् अति निर्मल यशवाले यशोभद्रसूरि हुए । तत्पश्चात् भाव शत्रुओं से अपराभूत संभूतविजयसूरि हुए। उनके बाद श्री भद्रबाहु स्वामी आचार्य हुए। वे कुमतरूप कुग्रह के प्रकाश को दबानेवाले महादेव के हास्य समान उज्जवल कीर्तिमान थे। उनके पश्चात् श्री स्थूलभद्र स्वामी आचार्य हुए । जो कि-त्रैलोक्य के लोगों को जीतनेवाले कामदेव के बल को दबाने वाले और युगप्रधान थे | उनके दो शिष्य थे:-आर्यमहागिरि और मोक्ष सुख के अर्थी आर्यसुहस्ति, वे श्रमणसंघ के शीर्षामलक (शिरोमणि) समान थे। वे परस्पर प्रोतिवान्, चरणकरण के भार को उठानेवाले, भव्यजन रूप कुमुद्दों को बोधित करने के लिये पूर्ण चन्द्रमण्डल . समान भक्ति से नमते हुए राजाओं के मणियुक्त मुकुटों से घिसाते हुए चरण वाले और युग-प्रवर गुणों से गरिष्ट होकर चिरकाल तक
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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