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________________ ८४ शक्यानुष्ठानारंभ टीका का अर्थ-संघयण याने वर्षभनाराच आदि और आदिशब्द से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव लेना। उनको अनुरूप अर्थात् उचित हो वैसे ही सम्पूर्ण अनुष्ठान को जिस संघयण में जो तप, प्रतिभा वा कल्प आदि कर सकने के योग्य हों उन्हीं को करे। उनसे अधिक करने लगने पर पार न पहुंचे तो प्रतिज्ञा-भंग होने की संभावना है । कैसा आरम्भ करे सो कहते हैं___ अतिलाभ वाला अर्थात् विशिष्ट फल देने वाला और अल्प छेद वाला अर्थात् थोड़ी हानि वाला । अल्पशब्द अभाव वाचक गिनते संयम को जो बाधा कारक न हो, वैसा यह परमार्थ निकलता है। कौन ? सो कि-श्र तसार विशारद अर्थात सिद्धान्त के तत्त्व का ज्ञाता सुयति अर्थात् भावसाधु । ऐसा कैसे हो सकता है सो कहते हैंनह तं बहु पसाहइ निवडइ असंजमे दृढं न जो। नणिउजमं बहूणं विसेसकिरियं तहाढवइ ।।११६।। मूल का अर्थ-जिस प्रकार उसकी बहुत साधना कर सके और जिससे विशेष कर असंयम में न पड़ जाय तथा अन्य बहुत से मनुष्यों को उसमें प्रवृत्त कर सके, उस प्रकार विशेष क्रिया करे। टीका का अर्थ-जैसे याने जिस प्रकार उसे अर्थात् शुरु करने का विचार किये हुए अनुष्ठान को दृढ़ता से अर्थात् खास करके बहुत साध सके याने बारम्बार कर सके और जिस अनुष्ठान से असंयम में अर्थात् सावध क्रिया में न पड़े-क्योंकि-अनुचित अनुष्ठान से कष्ट पावे तो पुनः उसके करने में उत्साहित न होवे । वैसे ही किसी समय दुःख उत्पन्न हो तो उसकी चिकित्सा कराने से
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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