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________________ आर्य मंगु की कथा ७९ राक्षस वा किन्नर हो, वह प्रकट होकर बोलो अन्यथा हम कुछ भी नहीं समझ सकते। ___ तब विषाद के साथ यक्ष बोला कि हे तपस्विओं ! मैं तुम्हारा वह क्रिया में प्रमादी बना हुआ आर्यमगु गुरु हूँ। तब साधुओं ने भी दिलगीर होकर कहा कि-अफसोस कि-आप ऐसे श्रु तनिधान होकर कैसे ऐसी दुर्गति को पहुँचे हैं ! अहो ! यह तो महान् आश्चर्य है । यक्ष बोला कि-हे महाभाग साधुओं ! इसमें कुछ भी कहना नहीं | यहां प्रमादवश चारित्र में शिथिल होने वाले, अवसन्न-विहारी, ऋद्धिरस तथा सातागारव से भारी बने हुए, साधु की क्रिया न करनेवाले मेरे जैसे पुरुषों की यही गति होती है। इस प्रकार हे मुनियों ! मेरा कुदेवत्व औलभांति विचार करके जो तुमको सुगति का काम हो और जो कुगति में जाने से डरते हो, तो सम्पूर्ण प्रमाद छोड़कर विहार करने में उद्य क्त रहकर के सदैव चारित्रयुक्त, गारव रहित, ममता रहित और तीत्र तपयुक्त होओ। तब वे साधु बोले कि-हे देवानुप्रिय ! तुमने हमको ठीक प्रतिबोधित किया । यह कहकर वे संयम में उद्योगी हुए । __इस भांति आर्यमंगु सूरि ने प्रमाद के कारण निकृष्ट फल पाया । अतएव हे शुभमतिओं ! तुम चारित्र में सदैव शीघ्रातिशीघ्र उद्यमवान् होओ। इस प्रकार आर्यमंगु की कथा पूर्ण हुई। पुनः प्रमाद ही का अन्य युक्ति से निषेध करते हैं पडिलेहणाइ चिट्ठा छकायविघाइणी पमत्तस्स । भणिया सुयंमि तम्हा अपमाई सुविहिरो हुज्जा ॥११२।।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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