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________________ सुनंद राजर्षि की कथा ७३. है। संयम और तप आदि से तथाभव्यत्वभाव पकता है । यह कहना भी तुच्छ (निरर्थक) है । क्योंकि-मरुदेवी आदि को तप, संयम न थे, तथापि उनका पाक क्यों हुआ ? इस प्रकार चारित्रावरणी कर्म से शुद्धपरिणाम में रुककर वह साधु तप ब क्रिया में किंचित् क्षुद्र आदरवन्त हुआ। अब गुरु ने श्र तज्ञान के बल से उसका अभिप्राय जान लिया और यह भी जाना कि-वह प्रज्ञापनीय है। जिससे वे मधुरवाणी से इस प्रकार कहने लगे कि-हे भद्र ! प्रतिलेखनादिक क्रिया जो कि- सुगति के मार्ग की दीपिका के समान है। उसमें क्षणभर भी प्रमाद मत कर । नियतिभाव ही से कार्यसिद्धि होती है। यह भी एकान्त नहीं, क्योंकि-उद्यम और काल आदि को भी कार्य के हेतु कहे हैं। क्योंकि कहा भी है कि-काल, स्वभाव नियति, पूर्वकृत और पुरुषकार इन पांच कारणों को पृथक-पृथक एकांत मानने से मिथ्यात्व होता है और साथ मानने से सम्यक्त्व रहता है। तथा जो मरुदेवी पूर्व में तप, नियम, और संयम किये बिना उसी भव में शुभ भाव के योग से सिद्धि को प्राप्त हुई। यह उदाहरण यद्यपि जगत् में आश्चर्यकारक है । तथापि चतुर-जनों ने उसे कदापि नहीं पकड़ना चाहिये। क्योंकि उससे व्यवहार का विलोप हो जाता है। आगम में भी कहा है कि-जो जिनमत स्वीकार करो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों को मत छोड़ो । क्योंकि-व्यवहार को छोड़ देने से तीर्थ का उच्छेद होता है ऐसा कहा है । व्यवहार भी बलवान है क्योंकि-केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी जब तक वह स्पष्ट ज्ञात न हुआ हो तब तक वह केवली-शिष्य अपने छद्मस्थ
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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