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________________ सुनंदराजर्षि की कथा ६९ क्रम से प्राप्त की जा सकती है, किन्तु जीवित गया तो वह इस जन्म में पुनः नहीं मिलता। विचार करो कि-राहु के मुख में से सारा निकल कर सूर्य ललाई छाड़कर पुनः उत्कृष्ट तेज धारण करता है । तथा अपन सुनते हैं कि-पूर्व में भी अपनी लाग न देखकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तथा यादव प्रभु (श्रीकृष्ण) भाग गये थे । मन्त्रियों के इस प्रकार कहने पर सुनन्द राजा अपना दुराग्रह छोड़कर लड़ाई से पीछे हटा। क्योंकि-चतुर मनुष्य समय पहिचानते हैं । तब अपने प्रतिपक्ष को पीछे हटकर भागता देख भीम राजा उसके पीछे प्रहार न करके दया लाकर पीछे फिरा । अब वनायुध की मृत्यु से तथा शत्रु के किये हुए पराभव से सुनन्द राजा अपने को मृत तुल्य मानकर अतिशय दुःख का अनुभव करने लगा। इससे चिन्ता के कारण रात्रि को नींद नहीं आई। इतने में एक देवता प्रकट होकर कहने लगा कि मैं तेरा वनायुध मित्र हूँ। उस समय मैं अपने को दुश्मनों से सख्त आहत हुआ जानकर रणभूमि से बाहिर निकल, हाथी से नीचे उतर द्रव्यशल्य तथा भावशल्य दूर कर पाप को निन्दा करके समाधि से नवकार का स्मरण करता हुआ मर कर प्रथम-देवलोक में देवता हुआ हूँ। बाद अवविज्ञान से शत्रु के पराभव से होता हुआ तेरा दुःख देखकर उसको टालने के लिये परम प्रेम के कारण यहां आया हूँ। इसलिये हे मित्र ! खेद छोड़, प्रभात होते ही,लड़ने को उद्यत हो और दुश्मन को हराकर शरदऋतु के बादलों के समान कीर्ति प्राप्त कर।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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