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________________ सुनंदराजर्षि की कथा लगा-हे देव ! यह एक महान् आश्चर्य दीखता है कि-हरिण जाकर सिंह की केसर तोड़ता है और अंधकार सूर्य को जीतना चाहता है । (यह कहकर उसने कहा कि-) उत्तर-दिशाधिपति दुर्दम भीमराजा जिस प्रकार इन्द्रियग्राम गुणों को नष्ट करता है, उस प्रकार आपके देश को नष्ट करता है। यह सुन राजा ने क्रुद्ध होकर रण का नगारा बजवाया। इतने में शुद्ध बुद्धिमान मंत्रिगण उसे कहने लगे-हे देव ! इस दुश्मन को देव सहायक है। वैसे ही लड़ाई की गति न्यारी है। जीत हो भी जाय और न भी हो । व बड़े-बड़े मनुष्यों का क्षय तो निश्चयतः होता है। इस कारण से साम, दाम और दान के अतिरिक्त हम यहां अभी दूसरी नीति पसन्द नहीं करते । अतः हे देव ! जो उचित हो सो करिये। ___ क्योंकि-साम से शत्रु हो सो मित्र हो जाता है। भेद से मित्र हो वह भी फोड़ा जा सकता है । दान से पत्थर के बने हुए देव भी वश में हो जाते हैं। इसलिये यथायोग्य रीति से इन तीनों का प्रयोग करने के अनन्तर जो दंड करने को तैयार होओगे तो अवश्य शत्रुओं का काला मुह कर सकोगे । क्योंकि इस प्रकार से यत्न करने वाले छोटे-छोटे राजाओं ने भी महान् लक्ष्मी प्राप्त की है, और इससे विपरीत यत्न करने वाले बड़े-बड़े भी नष्ट हो गये हैं । इसलिये हे देव ! शत्रु के सामन्त, मन्त्री और मित्रों का हृदय जानकर अपने विश्वस्त मनुष्यों द्वारा योग्य सामादिक भेजकर आप शीघ्र विजय यात्रा कर सकोगे और यश वृद्धि के साथ ही जयलक्ष्मी प्राप्त करोगे । अतएव नीतिरूप कवच पहिरकर दुश्मनों के सुभटों का भडवाद भंग करो। इस प्रकार मन्त्री के वचन सुनकर किंचित हँसकर राजा बोला कि-वणिक और ब्राह्मणों में ऐसी ही मति होती है । अन्यथा
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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