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________________ शिवभद्र मुनि का दृष्टांत उसके शरीर में उक्त सूक्ष्म शल्य दाखिल किया। अब वह घोड़ा बराबर घास पानी खाते पीते भी कृश होता है। तब राजा ने उसे वैद्य को बताया तो उसने ऐसा कहा कि इसे धातुक्षोभ तो नहीं है, पर इसके शरीर में कोई गुप्त शल्य हो ऐसा जान पड़ता है । यह कहकर उसने शीघ्र ही उस घोड़े पर सूक्ष्म कीचड़ का लेप कर दिया । तब उसे जहां शल्य लगा था. उस स्थान में जरा गरम रहने से वहां का कादव जल्द सूखा । तब उसने वहां शल्य को ढूढकर निकाल लिया जिससे घोड़ा निरोग हो गया। अब एक दूसरा घोड़ा था उसका शल्य नहीं निकाला जा सकने से उसका खाना पीना रुक गया। वैसे ही शल्य सहित साधु भी कर्म जय करने को असमर्थ रहता है । इसलिये हे देवानुप्रिय ! लाज, मान, भय आदि छोड़कर सम्यक्-रीति से तू तेरा शल्य आलोच | सशल्य रहकर मत मर । कहा भी है किः-शस्त्र, विष, छेड़ा हुआ वेताल, उलटा जमाया हुआ यंत्र अथवा पैर लग जाने से क्र द्ध हुआ सर्प, ये उतनी हानि नहीं कर सकते किजितनी (भावशल्य हानि करता है)। क्योंकि-अनशन के समय अनुद्धारित भावशल्य दुर्लभ-बोधिपन और अनंत संसारीपन करता है । इस प्रकार सिरिया को समझाने पर भी वह आलोयण, प्रतिक्रमण विना चारित्र को विराधना करके भवनपतियों में उत्पन्न हुआ। .. अब शिवभद्र तो कांटा किस मार्ग से दाखिल किया इस बात पर से किसी भी प्रकार लगे हुए अतिचार को जानकर तुरंत गुरु के पास आलोचना करने लगा । वह इस प्रकार आलोचना, प्रतिक्रमण करके, यथारीति श्रमणत्व की आराधना कर सौधर्म
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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