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________________ शुद्धदेशना टीका का अर्थ-अधिक वक्र जड़ वाले इस दुःषमा-काल में ढड्ढासण अर्थात् महा साहसिक अर्थात् भयानक भव-पिशाच से भी न डरनेवाले अनेक जन निजमतिकल्पित युक्तियों से अर्थात् अपनी बुद्धि से खड़ी की हुई युक्तियों से विधि प्रतिषेध करते दीखते हैं। अर्थात् कि-कितनीक क्रियाएँ आगम में नहीं कहीं सो करते रहते हैं और अन्य कितनीक आगम में अनिषिद्ध होकर चिरन्तन जनों को आचरी हुई, उनको अविधि कहकर के "धार्मिक जनों ने ऐसी क्रियाएँ न करना चाहिये" ऐसा कहकर उनका निषेध करने में प्रवृत्त होते हैं। वे किसमें प्रवृत्त होते हैं ? स्नात्र कराना आदि चैत्यकृत्यों में जो चैत्यकृत्य रूढ़, अर्थात् पूर्व पुरुषों की परम्परा से प्रसिद्ध है। 'पूर्व की रूढि सो अविधि, और वर्तमान प्रवृति सो विधि" ऐसा कहने वाले बड़े साहसिक पुरुष अनेक देखने में आते हैं। तं पुण विसुद्धसद्धा सुयसंवायं विणा न संसंति । अबहीरिऊण नवरं सुयाणुरूवं परूवंति ।।१०३।। मूल का अर्थ-उस प्रवृत्ति की विशुद्ध श्रद्धावाले पुरुष श्रुत के प्रमाण बिना प्रशंसा नहीं करते किन्तु उसकी अवधीरणा (उपेक्षा) करके श्रुत को मिलता हुआ प्ररूपण करते हैं। टीका का अर्थ-उसको अर्थात् उसकी प्रवृत्ति को विशुद्ध याने आगम में बहुमान वाले श्रद्धालु-जन श्र तसंवाद बिना अर्थात् श्रत में कही हुई सिद्ध न हो तो, अनुमत नहीं करते किंतु मध्यस्थ भाव से उसको उपेक्षा करके श्रुतानुरूप अथात् जैसा सूत्र में वर्णित हो, वैसा जिज्ञासुओं को बताते हैं । इस प्रकार शुद्ध देशना
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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