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________________ अचलमुनि का चरित्र सुभट कुछ भी न बोले । इतने में अचल बोला कि-हे देव ! मुझे आज्ञा दीजिए । इस रंक को पकड़ना कौन (बड़ी) बात है ? तब राजा ने अपने हाथ से उसे पान देकर कहा कि-हे भद्र ! वैसा कर, कि-जिससे यह चोर शीघ्र पकड़ा जावे । तब अचल ने प्रतिज्ञा करी कि-जो एक पक्ष के अन्दर चोर न पकडू तो अग्नि में प्रवेश करूगा | यह कह वह राजभवन से निकला। वह शहर में शृंगाटक, त्रिक चौक आदि स्थानों में भटका, किन्तु कोई चोर न मिला, तब वह नगर से बाहिर निकला। वह हाथ में तलवार ले, कमरकस दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर रात्रि के प्रथम प्रहर में कुण्ड नामक स्मशान में आया। वहां किसी स्थान में अति कटु और ककेश स्वर में उल्लुओं के कुटुम्ब रो रहे थे। किसी स्थान में रीठों के झुण्ड चिल्ला रहे थे। किसी स्थान में काले बैताल किलकिलाट कर रहे थे और किसी स्थान में भूतनियां उच्च स्वर से अट्टहास करती हुई फिर रही थीं। उसमें अचल, अचल (पर्वत) के समान क्षोभ रहित होकर ज्योंही कुछ आगे चला कि-उसने एक पिशाच को अपने साधक को पकड़ता देखा । तब वह उसे कहने लगा कि-हे महायश ! इस साधक को तू क्यों मारता है ? तब वह बोला कि इसने मुझे सात दिन तक प्रसाद खिलाया । किन्तु इस समय मैं ने अत्यन्त क्षधातुर होकर इससे महामांस मांगा वह यह क्षद्र नहीं दे सकता है, जिससे मैं शीघ्र ही इसे मारूंगा। तब परोपकार परायण अचल बोला कि-इसे छोड़ दे मैं तुझे महामांस देता हूँ। यह बात पिशाच ने भी स्वीकार कर ली। तब वह छुरी से अपना मांस काट कर उसे देने लगा। वह पिशाच भी 'मैंने किसी समय ऐसा तो खाया ही नहीं यह बोलता हुआ खाने लगा।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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