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________________ २८ श्री संगमसूरि की कथा दिवस बनाया । उसमें ब्रह्मांड रूप भांड मानो फूटता हो वसी गर्जना होने लगी। जिसे सुन भय से बोलने में अचकचाता हुआ वह गुरु को कहने लगा कि-हे भगवन् ! मैं डरता हूँ। तब गुरु बोले कि-डरता हो तो मेरे पास आ । वह बोला कि-अंधकार में दिशा-विदिशा नहीं देख सकता हूँ। तब गुरु ने अपने श्लेष्म से दीपशिखा के समान अपनी अंगुली को प्रकाशित करके, वह बताकर कहा कि- हे वत्स ! इस तरफ आ । यह देख वह दुष्टात्मा बोला कि- क्या इनके पास दीपक भी है ? तब देवी प्रत्यक्ष होकर उसे कहने लगी कि- . रे निःस्नेही दुष्टशिष्य ! देह गेहादिक में प्रतिबंध छोड़ने वाले इन मुनिनाथ के विषय में भी तू निर्लज्ज होकर ऐसा चिंतवन करता है ? तथा वसति बदलने के क्रम से पुनः यहां रहे हुए गुरु को अरे पापिष्ट ! दुष्ट और अधर्मिष्ठ ! क्या शिथिल चारित्रवान् मानता है ? अरे ! अन्तप्रांत खाने वाले को तू रसगृद्ध सोचता है ? धिक् धिक् ! अरे ! लब्धिवन्त को ऐसा बोलता है किदीपक सहित हैं ? द्रव्यादि दोष से दूसरे पद में रहते हुए शुद्ध श्रद्धा से भाव-चारित्र द्वारा पवित्र इन गुरु की क्यों अवगणना करता है ? ___ इस प्रकार देवता के शिक्षा देने पर वह अत्यन्त पश्चाताप पाकर गुरू के चरणों में गिरकर बारंबार अपना अपराध खमाने लगा। उसने अतिचारों का आलोयण किया और गुरू ने दिया प्रायश्चित किया, जिससे दत्त मुनि विनय में उद्य क्त रहकर निर्मल चारित्र का आराधक हुआ | संगमसूरि भी चिरकाल विधिसेवा रूप लता की वृद्धि करने के लिये मेघ समान रहकर निरूपम समाधि से क्लेशों को दूर करके सुगति को पहुँचे।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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