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________________ श्री संगमसूरि की कथा २५ धारी थे । समय-समय प्रति विशुद्ध होते परिणाम से पापसमूह को नष्ट करने वाले थे। और ग्राम, नगर, पर्वत आदि में नवकल्पी विहार करते थे। वे अति तीव्र प्रवरश्रद्धा के योग से शुद्ध परिणाम वाले होते हुए भी जंघाबल से हीन होने से कुल्लागपुर में स्थिरवासी होकर रहे। अब वहां लोगों को दुःख देने वाला दुष्काल पड़ा । तब उक्त भगवान ने प्रवचनमाता पालने में उद्यत उद्यतविहारी अनेक देश फिर कर सकल देशों की अनेक भाषाओं के ज्ञाता हुए सिंह नामक अनगार को गणाधिपतित्व सौंपा । बाद वे उन्हें कहने लगे कि-हे महाशय ! तू' स्वयं ही सब कर्तव्य जानता है, तथापि रूढ़ि के अनुसार मैं तुझे यह शिक्षा देता हूँ। तुझे सदैव उल्लसित प्रवरश्रद्धा से चारित्र का दुधर भार उठाना, तथा शिथिल शिष्यों को कोमल व मोठी वाणी से संभाल लेना चाहिये। ___कहा है किः-जहां सारणा नहीं हो वह जीभ से चाटता हो तो भी अच्छा नहीं और जहां सारणा है वह लकड़ी से मारता हो तो भी अच्छा । जैसे कोई शरणागत जन्तुओं के मस्तक काटता है, वैसे ही गच्छ में सम्हालने योग्य शिष्यों की सम्हाल न ले तो आचार्य भी मानों उनके मस्तक ही काटना है ऐसा जानना चाहिये। तथा तू द्रव्यादिक में अप्रतिबद्ध रह ममता छोड़ विविध-देशों में विचरना । क्योंकि-सूत्र में यतियों को अनियत विहार करना कहा है। वह इस प्रकार कि-अनित्यवास, समुदानचर्या (गोचरी), अज्ञात ऊंछ, निर्मदपन, अल्पउपधि और कलह विवर्जन, यह ऋषियों की प्रशस्त विहार-चर्या है । इत्यादिक शिक्षा देकर उन्होंने उसे कहा कि-हे वत्स ! तू अन्यत्र विहार कर अन्यथा यहाँ
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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