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________________ संविग्न गीतार्थ की आचरणा चाहिये । क्योंकि - आज्ञा से वैसा करने पर उसका भाव शुद्ध ही रहता है और वही मोक्ष हेतु है । निर्देय अर्थात् पत्रलेखन करके चन्द्र सूर्य तक दी हुई बसति अर्थात् स्थान, भी साधुओं को अकल्पनीय हैं। क्योंकि उसके लेने से अनगारत्व की हानि होती है तथा टूटी फूटी सुधारने से जीववध होना भी संभव रहता है । कहा भी है कि-जीवों को मारे बिना घर की सारसम्हाल और व्यवस्था किस प्रकार हो सकती है ? और वैसा करने वाले मनुष्य असंयत के मार्ग में पड़ते हैं । १ इसका ग्रहण भी कोई-कोई करते हैं। तथा तूली और मशवरी ( गादी तकिये) प्रसिद्ध ही हैं। आदिशब्द से गादी, खरल, कांसे तांबे के पात्र आदि लेना चाहिये, ये भी यतियों को अकल्पनीय हैं । 1 अत्र प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं । इच्चाई असमंजस - मणगहा खुद्द चिट्ठियं लोए । बहुए हिवि प्रायरियं न पमणं सुद्धचरणाणं ॥ ८८ ॥ मूल का अर्थ - इत्यादिक अनेक प्रकार का शुद्ध जनों से असमंजस चेष्टित इस लोक में बहुत से जनों ने आचरा हो तो भी वह शुद्ध चारित्रवन्त को प्रमाण नहीं । टीका का अर्थ - इत्यादिक याने इस प्रकार का असमंजस याने शिष्ट-जनों को (सुधरे हुए जनों को ) बोलने के लिये भी अनुचित अनेक प्रकार का क्षुद्र अर्थात् हीनसत्व-जनों का चेष्टित अर्थात् आचरित लोक में अर्थात् लिंगी-जनों में बहुत सों का आचरित हो, तो भी निष्कलंक चारित्रवान जनों का प्रमाण याने आलंबन हेतु नहीं ।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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