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________________ दुर्षलिका पुष्यमित्र की कथा लिका-पुष्यमित्र तुम्हारा गुरु हो ओ। तब उन्होंने भी मस्तक पर अंजली जोड़कर उस बात को वैसी ही स्वीकृत की। गणधर यह शब्द गौतमादिक धीर पुरुषों ने धारण किया है। अतः जो जानता हुआ उसे अपात्र में स्थापित करे यह महापापी माना जाता है । यह सोचकर गुण के पक्षपाती आचार्य ने शास्त्र विधि से पुष्यमित्र को आचार्य पद पर स्थापित करके इस प्रकार शिक्षा दी। हे वत्स ! फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल की ओर मैंने जिस प्रकार बर्ताव किया है उसी प्रकार तू भी करना । तब उसने भी वह बात स्वीकृत की। उन्होंने स्वजनों को कहा कि-जैसे तुमने मेरी ओर सदैव बर्ताव किया है उसी भांति इन मुनिनाथ की ओर भी विनयवन्त होकर बर्ताव करना । तुम (मेरा विनय) करते वा न करते तो भी कभी भी रुष्ट नहीं हुआ। किन्तु ऐसा वे सहन नहीं कर सकेंगे, अतएव इनकी ओर ठीक तरह से बर्ताव करना। इस भांति दोनों वर्गों को हितकारक वचनों द्वारा प्रसन्न करके भक्तप्रत्याख्यान करके आचार्य स्वर्ग को पहुँचे। पश्चात् दुर्बलिका-पुष्यमित्र गणधर सकल सन्देह दूर करते हुए, मार्गानुसारी क्रिया में तत्पर रह कर भव्यजनों को हर्षित करते हुए, अतिअनिष्ट और दुष्ट कदाग्रह से आहत हुए लोगों के अभिमान रूप बादल को पवन के समान तोड़ते रहकर अपने गच्छ की स्वस्थता संपादन कर, अनुक्रम से सुख के भाजन हुए। इस प्रकार श्री पुष्यमित्र मुनीश्वर का त्रैलोक्य में पवित्र वृत्तान्त सुनकर मुमुक्षु जनों ! मार्गानुसारी क्रिया में प्रयत्नवान बनो। . इस प्रकार दुर्बलिका-पुष्यमित्र की कथा पूर्ण हुई।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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