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________________ प्रशस्ति गद्दी ) पर सोया हुआ और कोमल व हंसमुखी कामिनियों के हाथ से चंपी कराता हुआ । इस प्रकार समस्त अनुकुल विषयों, का सेवन करता हुआ जो सुख पाता है, वही सुख एक सिद्ध जीव के सुख के अनंतवें भाग के बराबर भी नहीं । १७७ आगम में भी कहा है कि - जैसे कोई पुरुष सर्व काम - गुण युक्त भोजन करके भूख, तृषा से विमुक्त होता है, तो खूब, तृप्त हुआ कहा जाता है | वैसे ही अनुपम निर्वाण को पाये हुए सिद्ध सर्वकाल तृप्त रहकर शाश्वत और अव्याबाध सुख को पाकर सुखी बने रहते हैं । भावार्थ यह है कि-भली भांति सिद्धांत के अर्थ की विचारणा करते, उसमें कही हुई क्रिया में प्रवर्तित प्रतिक्षण बढ़ते हुए उत्तरोत्तर शुभ अध्यवसाय रूप नीर के पूर से सकल घातिकर्म को कलुषता को धो डालने वाले संपूर्ण कलायुक्त केवलज्ञान के बल से लोकालोक को देखने वाले, जघन्य से अंतमुहूर्त पर्यत और उत्कृष्ट से देश-कम पूर्वकोटि पर्यंत पृथ्वीतल को पावन करते और शैलेशीकरण से सकल भवोपग्राहि कर्म की प्रकृतियों का क्षय करने वाले भव्यजीवों को क्षेत्र काल - संघयण आदि समग्र भारी सामग्री वश परंपरा से निर्माण सुख की प्राप्ति होती है, यह बराबर संभव है । इस प्रकार श्री धर्मरत्न ग्रंथ की टोका समाप्त हुई है । प्रशस्ति विष्णु के समान जिनप्रभु के तीन पद ( उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ) अखिल जगत् में व्याप्त हैं, वे सद्धर्मरत्न के सागर श्री वीर जिन जयवान रहो । कुंद के पुष्प समान उज्वल कीर्ति से सकल भुवन के आभोग को ( विस्तृत प्रदेश को ) सुगंधित करने
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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